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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ देण देकर साध्वी बनाया । धनदेव श्रेष्ठी करोडो की सम्पत्ति, अनुपम रूपवती पुत्री के विवाह के साथ देना चाहता था, परन्तु स्वरुप साधना के अनन्त पथ का यात्री इन मोहक प्रलोभनो मे कब और कहाँ रुका है ? आप आकाग-गामिनी विद्या के भी ज्ञाता थे। एक बार उत्तर भारत मे भयकर दुभिक्ष पडा, तो आप श्रमण-सघ को विद्या के बल पर कलिंग प्रदेश मे ले गए थे। जैन अनुश्रुतियो मे आपके चमकारो की अनेक गाथाएँ प्रचलित है। वज्र स्वामी की शाखा मे वध नाम के अनेक आचार्य हुए है। प्राय सबके सब प्रभावशाली, दार्शनिक, भविष्यद्रष्टा और युग-पुरुष । चीनी यात्री हुएनत्साग (६४६ ई०) को भी, जब वह नालन्दा में वापस चीन लौटने की चिन्ता मे थे, असहाय थे, तत्कालीन जैनाचार्य ववस्वामी ने चमत्कृत कर दिया था। उन्होने बताया था कि असम के राजा कुमार और कान्यकुब्ज नरेश श्रीहर्ष आपकी सहायता करेंगे। कुमार का दूत तुम्हे बुलाने के लिए वहां से चल भी पड़ा है । वन स्वामी की सभी भविष्य वाणिया शत प्रतिशत प्रमाणित हुई, जिसका उल्लेख स्वय हुएनत्साग ने अपनी भारतयात्रा सम्वन्धी चीनी पुस्तक मे किया है, और उन्हे सुप्रसिद्ध भविष्यद्रष्टा बताया है। राजगृह के वैभारगिरि पर्वत की दक्षिणाभिमुख स्वर्ण भडार गुफा मे ईसा की चौथी शती का एक अभिलेख है, जो अन्य किसी वज्रस्वामी से सम्बन्धित है। यह गुफा वनस्वामी का साधना स्थान है, अत्यन्त सुरम्य और भव्य । चट्टान को काट कर एक विशाल भवन का रूप दे दिया गया है। इन पक्तियो के लेखक ने भी राजगृह के गत वर्पावास मे अनेक दिन और रात्रियाँ उक्त गुफा मे विताई है । अब भी वहां कुछ ऐसा है कि साधना के निर्मल क्षणो मे हृदय के कणकण से शान्त-रस का अमृत निर्भर वहने लगता है। वज्रशाखा के प्रवर्तक आर्य वजस्वामी वास्तव मे अलौकिक महापुरुप थे ।' उनका अलौकिकत्व उनकी गिष्य परम्परा मे चिरकाल तक उद्भासित रहा। यह तेजोमूर्ति सूर्य जब अस्ताचल की ओर था, तव एक और भयकर दुष्काल पडा । अपने प्रमुख शिष्य वचसेन को साधुसघ' के साथ सुभिक्ष प्रधान सोपारक एव कोकण प्रदेश मे भेज दिया और स्वय दक्षिण के रथावर्त पर्वत पर अनशन कर दिवगत हुए । कुछ विद्वान इन्हे ही द्वितीय भद्रबाहु कहते है और इन्ही के शिष्य वज्रसेन के युग मे श्वेताम्बर दिगम्बर मतभेदो ने शाखा भेद का रूप लिया । वन स्वामी के जन्म, दीक्षा आदि का समय इस प्रकार माना जाता हैजन्म वीर नि० स० ४६६ (३१ ई० पू०) दीक्षा - ॥ , , ५०४ (२३ ई० पू०) आचार्यकाल - ,,, ३६ वर्ष स्वर्गवाम ॥ ॥ ॥ ५८४ (५७ ई.) . दिगम्बर हरिवंशपुराण (१,३३) मे वर्षि और त्रिलोयपण्णत्ति मे वनयशा के नाम से जिन यशस्वी आचार्य का उल्लेख है, सभवत वे यही वनस्वामी हो।
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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