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पूर्व इतिवृत्त
सातवाहन जैनधर्मावलम्बी थे । यहाँ पहूँचकर आर्य कालक ने भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को पर्युपण पर्व की अराधना की । इनका समय वीर स० ४५४ माना जाता है।
१५ ार्य सिहगिरि
आचार्य सिहगिरि के जीवन के सम्बन्ध मे विशिष्ट सामग्री प्राप्त नहीं है। कल्प-सूत्र स्थविरावली मे इन्हे जातिस्मरण कहा है, अर्थात् इन्हे अपने पूर्व जन्म का स्मरण था । आप कौशिक गोत्री ब्राह्मण थे। आपके चार प्रमुख शिष्य हुए है—आर्य समित, आर्य धनगिरि, आर्य वन स्वामी और आर्य अर्हदत्त ।
आर्य समित (वीर स० ५८४) का जन्म स्थान अवन्ती देश (मालव) का तुम्बन ग्राम है। पिता का नाम धनपाल है, जाति से वैश्य है। आपकी बहन सुनन्दा का विवाह तुम्बवन मे ही घनगिरि से हुआ था। आर्य समित बडे ही तपस्वी एव योगनिष्ठ साधक थे। आभीर देश के अचलपुर ग्राम मे, इन्होने कृष्णा और पूर्णा नदियो को योगबल से पार कर ब्रह्मद्वीपीय पाच सौ तापसो को चमत्कृत किया
और उन्हें अपना शिष्य बनाया । दर्शनविजय जी के मतानुसार यह घटना उत्तर प्रदेश मेरठ जिले मे वर्तमान कृष्णा और हिण्डौन नदियो क बीच बरनावा के टापू मे घटित हुई थी।
१६ प्रार्य वज्रस्वामी
गौतमगोत्री आर्य वज्र, आर्य समित के भानजे होते है । पूर्व कथानानुसार आर्य समित की बहन सुनन्दा का धनगिरि से विवाह हुआ था। सुनन्दा गर्भवती थी कि धनगिरि अपने साले समित के साथ आर्य सिह गिरि के पास दीक्षित हो गए । पश्चात् सुनन्दा ने अत्यन्त तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, यही वज है। वन छह महीने के ही थे कि एक बार धनगिरि भिक्षार्थ सुनन्दा के यहाँ पहुँचे । ज्यो ही भिक्षा के लिए पात्र आगे रक्खा कि सुनन्दा ने आवेश मे बालक को पात्र में डाल दिया और कहा कि "आप गए तो इसे यहाँ क्यो छोड दिया? इसको भी ले जाएँ ।" धनगिरि ने समझाने का प्रयत्न किण, किन्तु वह न समझी । आखिर वन को पात्र मे लिए गुरुदेव सिहगिरि के पास पहुंचे । वज्र का श्रावको के यहा पालन पोषण होने लगा । कुछ वयस्क होने पर प्राविकाएं उपाश्रय मे जाती, तो साथ ले जाती। होनहार बालक ध्यानपूर्वक शास्त्र-श्रवण करता और उसके हृदय मे वैराग्य की रस-धारा बह जाती । आपको जातिस्मरण ज्ञान भी हो गया था। दीक्षा योग्य होने पर आर्य सिंहगिरि ने वन को मुनि दीक्षा दे दी। आचार्य शिष्यो को आगम वाचना देते, तो वह पास बैठा सुनता । अपूर्व मेधा शक्ति थी कि श्रवण मात्र से उसे सब आगम कण्ठस्थ होते चले गए। आर्य सिंहगिरि ने वन को वाचनाचार्य बना दिया। आर्य वन ने दशपुर (मन्दसौर) मे आचार्य भद्रगुप्त के पास दशपूर्व का अध्ययन किया । वज स्वामी अन्तिम दशपूर्वधर थे। उनके पश्चात्, अन्य कोई दशपूर्वी नहीं हुआ। कहा जाता है-आपके बाद अर्ध वजऋषभ नाराचसहनन का भी विच्छेद हो गया । आपके नाम पर वन शाखा प्रारभ हुई।
अवन्ती मे ज़ भक देवो ने आहार शुद्धि के लिए परीक्षा ली, वज्र खरे उतरे । पाटलीपुत्र के धनकुबेर धनदेव की पुत्री रुक्मिणी को, जो आपके अद्भुत रूप सौन्दर्य पर मुग्ध हो गई थी, आपने उप