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गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति-ग्रन्थ
ऊपर की वात गायद कुछ कठिन हो गई। मतलब यह कि सत्य निर्गुण है। शिव और सुन्दर उसी के ध्येय रूप है। सत्य ध्येय से भी परे है, वह अमूर्तिक है । शिव और सुन्दर उसका मूर्तिक स्वरूप है।
निर्गुण निराकार अन्तिम सचाई का नाम है, सत्य । वही तत्व मानव की उपासना मे सगुण, साकार, स्वरूपवान् बनकर गिव और सुन्दर हो जाता है।
सत्य की अपेक्षा शिव और सुन्दर साधना-पथ है, साध्य नही। वे प्रतीक है, प्रतिमा है। स्वय आराध्य नही है, आराध्य को मूर्तिमान् करते है।
शिव और सुन्दर की पूजा यदि अज्ञेय सत्य के प्रति आस्था उदित नही करती, तो वह अपने आप में अह-पूजा है । वह पत्थर-पूजा है । वह मूर्ति-पूजा सच्ची भी नही है ।
सच्ची मूर्ति पूजा वह है, जहाँ पूजक के निकट मृति तो सच्ची हो ही, पर उस मूर्ति की सचाई मूति से अतीत भी हो।
___ इस निगाह से शिव और सुन्दर पडाव है, तीर्य नहीं है, इप्ट-साधन है, इप्ट नहीं है। इप्ट भी कहलो, क्योकि इप्टदेव की राह में है । पर यदि राह में नहीं है, तो वे अनिप्ट है।
लेकिन यहां हम कही गडबड में पड़ गए मालूम होते है। जो सुन्दर है, वह क्या कभी अनिष्ट हो सकता है ? और शिव तो शिव है ही। वह अनिष्ट हो जाए, तो शिव ही क्या रहा?
वात ठीक है। लेकिन शिव का शिवत्व-निर्णय मानव-बुद्धि पर स्थगित है। सुन्दर का सौदर्यनिरूपण भी मानव-भावना के अधीन है। मानव-बुद्धि अनेक स्प है। वह देश काल में बधी है । इसलिए ये दोनो। शिव, सुन्दर । अनिष्ट भी होते देखे जाते है । इतिहास में ऐसा हुआ है, अब भी ऐसा हो रहा है।
सत्य स्वय-भव है, एक है, उसे आलबन की आवश्यकता नही है । सब विरोध उसमें लय हो जाता है। उसके भीतर द्वित्व के लिए स्थान नही है। वहां सब "न" कार स्वीकार है।
शिव और सुन्दर को आलवन की अपेक्षा है। अशिव हो, तभी शिव सभव है। अशिव को पराजित करने वाला शिव । यही बात सुन्दर के साथ है। असुन्दर यदि हो ही नहीं, तो सुन्दर निरर्थक हो जाता है । दोनो बिना द्वित्व के सभव नहीं है ।
सक्षेप मे हम यो कहे कि सत्य अनिर्वचनीय है। उस पर कोई चर्चा-आख्यान नहीं चल सकता। वह शुद्ध चैतन्य है । वह समग्र की अन्तरात्मा है।
और जिन पर बात-चीत चलती और चल सकती है, वे है शिव और सुन्दर । हमारी प्रवृत्तियो के व्यक्तिगत लक्ष्य ये ही दो है-शिव और सुन्दर ।