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सत्यं शिवं सुन्दरं
श्रीजनेन्द्रकुमार +++++++ ++
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"सत्य शिव सुन्दर" यह पद आजकल बहुत लिखा-पढा जाता है। ठीक मालूम नहीं, कौन इसके जनक हैं । जिसकी वाणी मे यह स्फुरित हुआ, वह ऋपि ही होगे। उनकी अखड साधना के फल स्वरूप हो, भावोत्कर्ष की अवस्था मे, यह पद उनकी गिरा से उद्गीर्ण हुआ होगा।
लेकिन कौन-सा विस्मय कालातर मे सस्ता नही पड जाता ? यही हाल ऋषि-वाक्यो का होता है।
किन्तु महत्त्व को व्यक्त करने वाले पदो को सस्ते ढग से नहीं लेना चाहिए। ऐसा करने से अहित होगा। आग को जेब मे रखे फिरने मे खैर नही है। या तो जेव में जो रख ली जाती है, वह आग ही नही है, या फिर उसमे कुछ भी चिनगारी है, तो जेब मे नही ठहरेगी। सबको जलाकर वह चिनगारी ही आग बनकर दमक उठेगी।
"सत्य शिव सुन्दर" पद का प्रचलन घिसे पैसे की न्याई किया जा रहा है। कुछ नहीं है तो इस पद को ले बढो । यह अनुचित है। यह असत्य है, अनीतिमूलक है । शब्द कीमती चीज है । भारम्भ मे वे मानव को बडी वेदना की कीमत में प्राप्त हुए होगे। एक नए शब्द को बनाने मे जाने मानव-हृदय को कितनी तकलीफ झेलनी पड़ी होगी। उसी बहुमूल्य पदार्थ को एक परिश्रमी पिता के उडाऊ लडके की भाति जहां-तहां असावधानी से फैकते चलना ठीक नहीं है । कृतघ्न ही ऐसा कर सकता है।
"सत्य शिव सुन्दर" पद से हम क्या पाए, क्या लें, यह समझने का प्रयास करना चाहिए। उस