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हिन्दी का भक्ति साहित्य
से कबीर का व्यक्तित्व बहुत ही आकर्षक हो गया है। वे नाना भॉति की परस्पर-विरोधी परिस्थितियों के मिलन-बिन्दु पर अवतीर्ण हुए थे, जहाँ से एक ओर हिंदुत्व निकल आता है और दूसरी और मुसलमानत्व, जहाँ एक ओर ज्ञान निकल जाता है दूसरी ओर अशिक्षा, जहाँ से एक और योग-मार्ग निकल जाता है दूसरी ओर भक्ति-मार्ग, जहा से एक तरफ निर्गुण-भावना निकल जाती है, दूसरी ओर सगुण-साधना। उसी प्रशस्त चौरस्ते पर वे खडे थे । वे दोनो ओर देख सकते थे और परस्पर विरुद्ध दिशा में गए हुए मार्गों के दोष-गुण उन्हे स्पष्ट दिखाई दे जाते थे। यह कबीरदास का भगवदत्त सौभाग्य था। वह साहित्य को अक्षय प्राणरस से आप्लावित कर सके थे । पर इसी को सब कुछ मानकर यदि हम चुप बैठ जाएं, तो इसे भी ठीक-ठीक नहीं समझ सकेंगे। आचार्य श्री क्षितिमोहनसेन ने "ओझा अभिनन्दन-प्रथमाला" मे एक लेख-द्वारा दिखाया है, कि मध्ययुग का भक्ति-साहित्य किस प्रकार भिन्न-भिन्न प्रान्तो के साथ सम्बद्ध है।
साहित्य का इतिहास पुस्तको और ग्रन्थकारो के उद्भव और विलय की कहानी नही है । वह काल-त्रोत मे बहे आते हुए जीवन्त समाज की विकास-कथा है। प्रथकार और ग्रन्थ उस प्राण-धारा की ओर इशारा भर करते है । वे ही मुख्य नहीं है, मुख्य है, वह प्राण-धारा जो नाना परिस्थितियो से गुजरती हुई आज हमारे भीतर आम प्रकाश कर रही है। साहित्य के इतिहास से हम अपने-आपको ही पढते हैं, वही हमारे आनन्द का कारण होता है। यह प्राण-धारा अपनी पारिपाश्विक अवस्थाओ से विच्छिन्न और स्वतन्त्र नहीं है । इसी रूप मे हमे भक्ति साहित्य को भी देखना है।