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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-अन्य
आए है । मैंने उल्लिखित "कवीर' पुस्तक में विस्तृत भाव में इस गब्द के पूर्वापर अर्थ का विचार किया है और इसलिए मैं यह कहने का माहम करता हूँ कि कबीरदाम "खसम" शब्द का व्यवहार करने ममय उमके अरवी अर्थ के अतिरिक्त भारतीय अर्थ को भी बरावर ध्यान में ग्वने है। मेरा विश्वास है कि नेपाल और हिमालय की तराइयों में जहाँ-जहाँ योग-मार्ग का प्रबल प्रचार था, वहाँ के लोक-गीन और लोक-कथानको मे ऐसे ऐसे अनेक रहस्यो का उद्घाटन हो सकता है।
परन्तु मयोग और मौभाग्यवश लो पुस्तकें हमारे हाथ में आ गई है, उनका ही अध्ययन का प्रधान बवलम्ब नही माना जा मकता । पुस्तको मे लिखी बानो मे हम समाज की एक विशेप प्रकार की चिन्ताघारा का परिचय पा सकते हैं। इस कार्य को जो लोग हाथ में लेंगे, उनम प्रचुरकल्पना-गक्ति की आवध्यकता होगी। भारतीय ममाज जमा आज है, वैसा ही हमंगा नही था। नए-नए जन-समूह इम विगाल देश मे आते रहे है और अपने विचागे और आचागे का कुछ-न-कुछ प्रभाव छोडने गए है। पुरानी ममाज व्यवस्था भी मदा एक-मी नहीं रही है । आज जो जातियां समाज के सबसे निचले स्तर पर विद्यमान हैं, वे मदा वही नहीं रही, और न वे सभी मदा ऊँचे स्तर में ही रही है जो आज ऊंची है। इस विगट जनममुदाय का मामाजिक जीवन बहुन स्थितिगील है, फिर भी ऐमी धाराएँ इममे एक दम कम नहीं है, जिन्होंने उसकी मतह को आलोटित-विलोडित किया है। एक ऐमा भी जमाना गया है, जब इम देश का बहुत बहा जन-ममाज ब्राह्मण धर्म को नहीं मानता था। उसकी अपनी पौराणिक परम्परा थी, अपनी समाज-व्यवस्था थी, अपनी लोक-परलोक भावना भी यो । मुसलमानो के आने से पहले ये जातियां हिन्दू नही कही जाती थी-कोई भी जाति तब हिन्दू नही कही जाती थी। मुमलमानो ने ही इस देश के रहने वालो को पहले-पहल हिन्दू नाम दिया । किमी अनात मामाजिक दवाव के कारण इनमे की बहुत मी अल्पसंख्यक अपौराणिक मत की जातियां या तो हिन्दू होने को बाध्य हुई या मुसलमान । इस युग की यह एक विशेप घटना है, जब प्रत्येक मानव-ममूह को किमी न-किमी बडे कैम्प में शरण लेने को बाध्य होना पड़ा । उत्तरी पजाव से लेकर बगाल की ढाका कमिश्नरी तक एक अर्द्धचन्द्राकृति भू भाग में जुलाहो को देखकर रिजली माहव ने अपनी पुस्तक "पीपाम आफ इण्डिया (पृ० १०६) में लिखा है कि इन्होंने कभी समूह रूप में मुसलमानी धर्म ग्रहण किया था। कवीर, रज्जव आदि महापुरुप इमी वश के ग्ल ये । वस्तुतः ही वे "न-हिन्दू-न-मुमलमान" थे। महजपयी माहित्य के प्रकाशन ने एक बात को अत्यधिक स्पष्ट कर दिया है । मुसलमान-आगमन के अव्यवहित पूर्वकाल में डोमीहाडी या हलखोर आदि जातिया काफी सम्पन्न और शक्तिशाली थी। मैं यह तो नही कहता कि ग्यारहवी शताब्दी के पहले वे ऊची जातिया मानी जाती थी, पर इतना कह सकता हूँ कि वे शक्तिशाली थी और दूसरो के मानने-न मानने की उपेक्षा कर सकती थी।
निर्गुण माहित्य के अध्येता को इन जातियो की लोकोक्तियां और क्रिया-कलाप जरूर जानने चाहिए । उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि इम अध्ययन की मामग्री न तो एक प्रान्त मे सीमित है, न एक भापा मे, न एक काल मे, न एक जाति में, और न एक मम्प्रदाय में ही । व्यक्तिगत रूप में इस माहित्य के प्रत्येक कवि को अलग समझने में यह सारा साहित्य अम्पप्ट और अधूग लगता है, यद्यपि नाना कारणो
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