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हिन्दी का भक्ति-साहित्य
दक्षिण के भक्तो मे मौलिक अन्तर था-एक को अपने ज्ञान का गर्व था, दूसरे को अपने अज्ञान का भरोसा, एक के लिए पिड ही ब्रह्माण्ड था, दूसरे के लिए ब्रह्माण्ड ही पिण्ड, एक का भरोसा अपने पर था, दूसरे का राम पर, एक प्रेम को दुर्बल समझता था दूसरा ज्ञान को कटोर, एक योगी था और दूसरा भक्त । इन दो धाराओ का अद्भुत मिलन ही निर्गुण-धारा का वह साहित्य है, जिसमे एक तरफ कभी न झुकने वाला अक्खडपन है और दूसरी तरफ घर-फूक-मस्ती वाला फक्कडपन । यह साहित्य अपने आप में स्वतत्र नहीं है । नाथ-मार्ग की मध्यस्थता में इसमें सहजयान और वज्जयान की तथा शैव और तत्रमत की अनेक साधनाएँ और चिन्ताएँ आ गई है, तथा दक्षिण के भक्ति-प्रचारक आचार्यों की शिक्षा के द्वारा वेदान्तिक और अन्य शास्त्रीय चिन्ताएं भी ।
___ मध्ययुग के निर्गुण कवियो के साहित्य मे आने वाले सहज, शून्य निरञ्जन, नाद, बिन्दु आदि बहुतेरे शब्द, जो इस साहित्य के मर्म स्थल के पहरेदार है, तब तब समझ में नहीं आ सकते, जब तक पूर्ववर्ती साहित्य का अध्ययन गभीरतापूर्वक न किया जाए। अपनी कबीर' नामक पुस्तक मे मैंने इन शब्दो के मनोरजक इतिहास की ओर विद्वानो का ध्यान आकृष्ट किया है । एक मनोरजक उदाहरण दे रहा हूँ। यह सभी को मालूम है कि कबीर और अन्य निर्गुणिया सन्तो के साहित्य मे "खमम" शब्द की बार-बार चर्चा आती है । साधारणत इसका अर्थ पति या निकृष्ट पति किया जाता है । खमम शब्द से मिलता-जुलता एक शब्द अरबी भापा का है। इस शब्द के साथ समता देखकर ही खसम का अर्थ पति किया जाता है। कबीरदास ने इस शब्द का अर्थ कुछ इस लहजे मे किया है कि उससे ध्वनि निकलती है कि खसम उनकी दृष्टि मे निकृष्ट पति है। परन्तु पूर्ववर्ती साधको की पुस्तको मे यह शब्द एक विशेष अवस्था के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है-"ख-सम-भाव" अर्थात् आकाश के समान भाव। समाधि की एक विशेष अवस्था को योगी लोग भी "गगनोपम" अवस्था कहा करते है। ख-सम और गगनोपम एक ही बात है। अवधूत गीता मे इस गगनोपमावस्था का विस्तारपूर्वक वर्णन है । यह मन की उस अवस्था को कहते है, जिसमे द्वैत और अद्वैत, नित्य और अनित्य, सत्य और असत्य, देवता और देवलोक आदि कुछ भी प्रतीत नहीं होते जो माया-प्रपच के ऊपर है, जो दम्भादि च्यापार से अतीत है, जो सत्य और असत्य के परे है, जो ज्ञान रूपी अमृतमान का परिणाम है । टीकाकारो ने "ख-सम" का अर्थ 'प्रभास्वरतुल्यभूता" किया है। इस साहित्य मे वह भावा भावविनिर्मुक्त अवस्था का वाचक हो गया है । निर्गुण साधको के साहित्य मे उसका अर्थ और भी बदल गया है। गगनोपमावस्था योगियो की दुर्लभ सहजावस्था के आसन से यहाँ नीचे उतर आई है। कबीरदास प्राणायाम प्रभृति शरीर-प्रयत्लो से साधित समाधि का बहुत आदर करते नही जान पडते । जो सहजावस्था शरीर-प्रयत्नो से साधी जाती है। वह ससीम है और शरीर के साथ-ही-साथ उसका विलय हो जाता है । यही कारण है कि कबीरदास इस प्रकार की ख-समावस्था को सामायिक आनन्द ही मानते थे । मूल वस्तु तो भक्ति है, जिसके प्राप्त होने पर भक्त को नाक-कान सूघने की जरूरत ही नहीं होती, कथा और मुद्रा धारण की आवश्यकता ही नहीं होती। वह ' सहजसमाधि" का अधिकारी होता हैसहजसमाधि जिसमे 'कहूँ सो नाम, सुन सो सुमरन, जो कुछ करूं, सो पूजा" ही है। अब तक पूर्ववर्ती साहित्य के साथ मिलाकर न देखने के कारण पण्डित लोग "खसम" शब्द के इस महान् अर्थ को भूलते
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