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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति ग्रन्थ
ही कम हैं । उसमे प्राय सभी मत्र ऋग्वेद के ही हैं। "साम" का अर्थ गाना है । वैदिक मान्यतानुसार सगीत का प्रादुर्भाव इसी से हुआ है ।
प्राचीनकाल मे गर्व और किन्नर इम कला के मर्मज्ञ होते थे । अत "गधर्व वेद" के नाम से भी यह कला प्रसिद्ध है ।
ॠग्वेद मे तोन प्रकार के वाद्यो का उल्लेख है। दुदुभी, वाद्य चांसुरी और वीणा । यजुर्वेद मे भी सगीत के प्रमग मे वीणा, बाँसुरी और गख बजाने का वर्णन मिलता है । अनेक वैदिक ग्रन्थो मे गीत के गाने के उल्लेख प्राप्त होते है । श्रीमद्भागवत में व्यास ने गिर्वाण गिरा की सुप्रसिद्ध कवयित्री विज्जका ने, पाताल महाभाष्य ने, नैपघ महाकाव्य मे श्रीहर्ष ने और रामचरितमानस में तुलसीदास ने गीत गान का उल्लेख किया है ।
वैदिक विज्ञो ने मगीत पर मुनि के नाट्यशास्त्र मे मिलता है। "सगीत - रत्नाकार” राग- निवोध, निरूपण है ।
बौद्ध साहित्य में संगीत
जैन और वैदिक साहित्य में जिम प्रकार सगीत कला का वर्णन मिलता है, उसी प्रकार बौद्ध साहित्य में भी ।
"विनय पिटक" वौद्ध साहित्य का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमे राजगृह की पहाडी पर होने वाले समाज का वर्णन है, जिसमे नृत्य और मगीत होते थे ।"
महत्वपूर्ण ग्रन्थ भी लिखे हैं । सर्व प्रथम इसका शास्त्रीय वर्णन भरत भामह का "अलकार - शास्त्र", मतग का "वृहद्देशी" कालीनाथ का सगीत - पारिजात और मगीत-दर्पण आदि मे इम कला का सुन्दर
गुहिल जातक में बनारस का वर्णन है । उस समय वनारस मगीत- विद्या का केन्द्र था । जहाँ कभीकभी वीणा वादन और मगीत की प्रतियोगिता होती थी ।
मध्यकाल मे संगीत
मध्यकाल मे मानव आध्यात्मिकता से हटकर भौतिकता की ओर बढा, जिससे सगीत मे मोक्ष पुस्पार्थ गर्न पार्न कम होने लगा । बादशाही जमाने मे सगीत की बहुत उन्नति हुई है । लेनपूल के
१ यजुर्वेद ३०१६-७, ११।१७ २०
विनय-पिटक ३२५ २२६
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३ जातक २२५१२४६
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