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गुरदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्य
अपने सहधर्मी व्यक्तियो की सहायता करे तथा शिक्षा और सामाजिक संस्थाओं के लिए सहयोग करे। इस प्रकार के खर्च करने वाले को एक स्थायी पुण्य और यश का लाभ होगा, दूसरी और उन आवश्यकताअस्त बन्धुओ को सहयोग और शिक्षा तथा सामाजिक सस्थाओ को स्थायित्व प्राप्त होगा।
दहेज के लिए प्राचीन शब्द प्रीतिदान था।' प्राचीनकाल मे प्रचुर मात्रा में प्रीतिदान देने का रिवाज था । भगवती सूत्र तथा जाताधर्म में प्रीतिदान के जो उल्लेख आए है, उतना प्रीतिदान देने की तो आज कल्पना करना भी कठिन है। महावलकुमार तथा मेधकुमार को इतना प्रीतिदान दिया गया था कि उनकी सात पीढियो तक खर्च करते रहने पर भी समाप्त न हो।'
आज इसका स्वरूप अत्यन्त विकृत हो गया है । अव प्रीतिदान देने की प्रथा नही, लेने की प्रथा चल पडी है, वह भी कन्या के माता पिता से। यदि उनमे मामयं न हो तो भी उन्हे दहेज देने के लिए वाध्य किया जाता है । इमे प्रीतिदान कहना प्रीतिदान का उपहास मात्र है । यह प्रथा समाज के लिए घातक है । इसे समाप्त होना ही चाहिए । कन्या पक्ष वाल तो दहेज का विरोध करे ही, वर पक्ष वालो को भी इसका विरोध करना चाहिए ।
विवाह की सही मर्यादाएं वही है, जिन्हें समाज देश, काल और परिस्थितियो के अनुसार निश्चित करती है। इन मर्यादाओ का पूर्णस्प मे पालन किया जाना चाहिए । जैन-दृष्टि से विवाह का यह सास्कृतिक स्वरूप है।
१ अम्मापियरो पोतिदाण वलयति, भगवती, शत ११ उद्दे० ११, ज्ञाताधर्म, स्कन्ध १, अध्य० १ 'विउल पण कणग जाव सत सावदेज्ज अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवसाओ पकाम दाउ पकाम
परिभोतुं परिभाएउ, भगवती शत० ११, उद्दे० ११, ज्ञाताधर्म, स्कन्ध १, अध्य०१ 3 तस्स महब्बलस्स कुमारस्स अम्मापियरो पीतिदाण दलयति, भगवती शत ११, उद्दे० ११ तस्स मेहस्स अम्मापियरोपीतिदाणं वलयति ज्ञाताधर्म, स्कन्ध १, अध्य०१
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