________________
जन-सस्कृति और विवाह
व्याप्त करता है, इसीलिए उसके लिए शुभाक्सर देखा जाता है, पर इस शुभावसर का निश्चय कौन करे यह तिथि अच्छी है यह नही, या दिन अच्छा है या नही इस बात का निर्णय कैसे किया जाए? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसके समाधान के लिए ब्राह्मण देवता का सहारा लिया जाता है । वह ज्योतिषी ब्राह्मण जिस तिथि को अच्छा बताए वह अच्छी है, शेप बुरी । तथ्य यह है कि हमारा सारा सामाजिकजीवन ब्राह्मण के साथ ऐसा जकड दिया गया है कि जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तथा उसके बाद भी ब्राह्मण हमारा पीछा नहीं छोडता। बौद्धिक जागृति के अनुसार ये सब क्रियाकाण्ड समाप्त हो रहे है। इसीलिए विवाह के लिए भी ब्राह्मण का उपयोग नहीं किया जाना जाहिए । मुहूर्त निकलने के विषय मे लोगो को थोडी हिचकिचाहट हो सकती है । इस विषय मे मेरा यह सुझाव है कि वर्षावास के अतिरिक्त अन्य दिनो मे तीर्थकरो के जिस-जिस दिन कल्याणक पडते है अथवा अन्य पुण्य तिथियाँ, जिन्हे धर्म मे पर्व या त्यौहार के रूप में माना गया वे सभी तिथियाँ शुभ है तथा मागलिक है । अतएव इन्ही तिथियो मे सबन्ध कर लेना चाहिए । ऐसा करने से मुहुर्त निकालने के लिए होने वाली सारी झझटे समाप्त हो जाती है । किसी भी जैनतिथि पर्पण अथवा इसी पुस्तक मे दिए गए चार्ट से कोई भी व्यक्ति शुभ-तिथि देख सकता है । इसके साथ ही इस प्रकार के मुहूर्त शोधन से हमारी एक स्वतन्त्र जैन सास्कृतिक परपरा प्रारम होगी।
विवाह जैसे पुण्य और पवित्र कार्य मे बहुत समय से बाह्य आडबर, फिजूल-खर्ची, दहेज आदि कुछ ऐसी विकृतियाँ आ गई है। जिनने इस पुण्य कार्यको एक गहरी परेशानी और बड़ी भारी सामाजिक समस्या बना दिया है।
विवाहो मे आजकल बाह्य आडबर इतना अधिक बढता जा रहा है कि अनेक लोग तो दिखाने के लिए अपनी शक्ति और मर्यादा से भी अधिक खर्च करने लगे है। सामाजिक हितो के साथ साथ व्यक्तिगत हित को भी ताक मे रखकर किए जाने वाले ऐसे बाह्य आडबरो पर समाज की ओर से प्रतिबन्ध होना आवश्यक है।
विवाह आदि सभी मागलिक अवसरो पर प्राचीन काल मे प्रचुर दान दिए जाने की चर्चा आती है। राजे, महाराजे और सेठ साहूकार अपने खजाने खोल देते थे आवश्यकता वाले व्यक्ति को मुंह मांगा दान देते थे। साधारण परिवार भी अपनी मर्यादा के अनुकूल दिया करते थे। अपूर्व उत्साह के साथ मृत्य, गीत, वादित्र आदि के मधुर आयोजन होते थे, पर इन सब मे मर्यादाएँ थी। आज इन परपराओ का रूप इतना विकृत हो गया है कि दान का स्थान फिजूल खर्ची ने ले लिया है तथा नृत्य, गीत आदि का स्थान थोथे आयोजन लेते जा रहे है । विवाह मे हजारो रुपये लुटाने वाले व्यक्ति के स्वय अपने रिश्तेदार भी भले ही धन-भाव में पिसते रहे, किन्तु उनकी आवश्यकता की पूर्ति न करके फिजूल खर्चा की जाती है।
निसदेह विवाह तथा वैसे ही अन्य सुअवसरो पर प्रत्येक व्यक्ति को अपूर्व उत्साह के साथ अपनी अपनी मर्यादा के अनुसार खर्च करना चाहिए। इसके लिए विशुद्ध सास्कृतिक परपरा यह होगी कि वह
२९१