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जैन - संस्कृति और विवाह
उपर्युक्त दोनो प्रकारो का समन्वयात्मक रूप यह भी हो सकता है कि विवाह का निश्चय मातापिता या रिश्तेदार तथा युवक और कन्या सब परामर्श पूर्वक करे । माता-पिता को अपने पुत्र या पुत्री का सबन्ध योग्यतम करने की अभिलापा होती ही है, अतएव उन्हे अपने पुत्र या पुत्री की भावनाओ का भी आदर करना चाहिए । इसी तरह यदि कन्या या युवक विवाह का निश्चय स्वय भी करे तो भी उन्हे अपने माता पिता या रिश्तेदारो का परामर्श ले लेना उचित होगा। इससे केवल बडो का सम्मान ही नही होगा, प्रत्युत आगामी जीवन मे उनका सदा सहयोग और शुभकामनाएँ भी प्राप्त होती रहेगी । अनेक सभ्रान्त परिवारो मे यह परपरा अब भी प्रचलित है। ऐसे सबन्धो की उपयोगिता सर्वविदित है । इसके प्रसार के लिए माता-पिता तथा युवक और कन्या का उदारमना होना आवश्यक है । केवल अपनी बात को मनवाने का आग्रह रहने पर यह सभव नही ।
इस प्रकार सबन्ध का निश्चय माता पिता या सवन्धी करे अथवा युवक और कन्या स्वत अथवा सब मिलकर, किन्तु निश्चय होने के बाद सामाजिक स्वीकृति के रूप मे उनका विधिवत् पाणिग्रहण सस्कार अवश्य हो जाना चाहिए। जिस प्रकार असस्कृत ( शान पर नही चढाया गया) रत्न भी अपने तेज को प्रकट नही करता, उसी प्रकार सस्कार के अभाव मे युवक और कन्या का सबन्ध भी सामाजिक प्रतिष्ठा नही पा सकता ।
पुरुष की पत्नी का
पुनर्विवाह के सबध मे वर्तमान मान्यताएं कुछ विचित्र सी है। यदि किसी स्वर्गवास हो जाए या वह पत्नी का त्याग कर दे तो वह अन्य विवाह कर सकता है। सामाजिक दृष्टि से इसमे कोई रुकावट नही डाली जाती। इसके विपरीत यदि किसी स्त्री के पति का स्वर्गवास हो जाए या उसका पति उसे छोड दे तो वह दूसरा विवाह नही कर सकती। यदि करती है तो, सामाजिक दृष्टि से अनुचित बताया जाता है। वास्तव मे पूछा जाए तो यह पुरुष जाति की स्त्री जाति पर ज्यादती है । यदि पुरुष को दूसरा तीसरा सबन्ध करने का अधिकार है तो स्त्री को भी वह अधिकार होना चाहिए ।
पुनर्विवाह का निश्चय और आयोजन भी प्रथम विवाह की तरह ही माता-पिता वा सबन्धियो अथवा स्त्री-पुरुष को स्वय पूरे उत्तरदायित्व के साथ करना चाहिए। स्त्री के पुनर्विवाह का उत्तरदायित्व ( यदि वह स्वत नही करती ) उसके ससुराल वालो पर है। जिस तरह वे अपनी कन्या के विवाह का निश्चय वा आयोजन करते है, उसी तरह उन्हे इस या परित्यक्ता के विवाह का भी आयोजन करना चाहिए | उसके नाबालिग बच्चो पर उसका अपना अधिकार होना चाहिए ।
प्राचीन काल में वर या कन्या की खोज करने के
मुख्य दो साधन थे
१ राजे महाराजे अपनी कन्या के स्वयंवर का आयोजन करते, जिसमे अनेक देश देशान्तरो के राजकुमारो को आमंत्रित किया जाता । कन्या उनमे से सर्वश्रेष्ठ को चुन लेती, बाद मे उन दोनो का पाणिग्रहण होता ।
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