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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-प्रन्थ
इस कार्य के प्रथम चरण का प्रारम्भ करने के लिए सबसे पहले हमे कम से कम जैन समाज के सभी छोटे-बडे दायरो मे वैवाहिक सम्बन्ध प्रारंभ कर देना चाहिए ।
जैन परिवार चाहे किसी भी क्षेत्र या परिस्थितियो मे रहे, उसकी जैन सास्कृतिक परपरा अक्षुण्ण बनी रहती है । यही कारण है कि दुनियाँ भर के जैनो मे एक गहरी सांस्कृतिक एकता के कारण हमारे वैवाहिक सम्बन्ध पूर्ण रूप से सफल होगे ।
इसके अतिरिक्त इस तरह के सम्बन्धो से एक और भी बहुत बडा लाभ यह होगा कि जैन समाज छोटे-छोटे टुकडो मे बंटकर जो छिन्न-भिन्न हो चुका है, उसमे स्वयमेव एक दृढ एकता आ जाएगी । रक्त का सम्बन्ध जव तक नही होता, तब तक भावात्मक एकता के कितने ही प्रयत्न क्यो न किए जाएं, उनसे मतभेद की खाइयाँ नही पट सकती ।
वैदिक शास्त्रो मे ब्रह्म विवाह, देव विवाह आदि आठ प्रकार के विवाहो का वर्णन आता है । सामाजिक हित की दृष्टि से वे सबके सब न तो उस समय उपयोगी थे, न इम ममय है । इनके अतिरिक्त जैन- दृष्टि से भी उनका मेल नही बैठता ।
विवाह को दो श्रेणियों मे रखना चाहिए
१ जिनका निश्चय तथा आयोजन माता पिता या सबन्धी करे ।
२ जिनका निश्चय तथा आयोजन वर और कन्या स्वय करें ।'
पहले प्रकार के विवाह की सफलता तथा वर और वधू के योग्य चुनाव का पूर्ण उत्तरदायित्व माता-पिता या निश्चय करने वाले सबन्धियो पर होता है। उनकी कुशलता से ही मवध योग्यतम हो सकते है ।
दूसरे प्रकार के सबन्धो मे वर और कन्या माता-पिता की अपेक्षा किए बिना ही मवन्ध का निश्चय तथा आयोजन स्वत करते हैं । प्रेम विवाह आदि इसी के अन्तर्गत आ जाते हैं ।
सामाजिक दृष्टि से उक्त दोनो प्रकार के विवाह उपयोगी हैं, बशर्ते कि निश्चय और आयोजन करने वाले अपने उत्तरदायित्व को पूर्ण रूप मे समझे । स्वार्थी अथवा अविवेकी माता-पिता और रिश्तेदारो के द्वारा किए गए विवाह तथा प्रेम और भावुकता के आवेग मे युवक और कन्या द्वारा स्वय किए गए विवाह दोनो ही अयोग्य है तथा सामाजिक दृष्टि से अहितकर भी है। इसलिए विवाह का निश्चय माता पिता या सबन्धी करें अथवा युवक और कन्या स्वय, किन्तु योग्य व्यक्ति के चुनाव मे पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए ।
१ वर्तमान मे यही दो रूप देखे जाते हैं ।
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