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जन-सस्कृति और विवाह
(ख) अन्तर्जातीय विवाह-आगम तथा जैन-दृष्टि से 'अन्तर्जातीय विवाह' इस शब्द का प्रयोग भी गलत है । जैन-सस्कृति मे मनुष्य मनुष्य मे भेद करने वाली, जाति नाम की कोई चीज ही नही है । सभी मनुष्य समान है। मानव मात्र की एक ही जाति है- "मनुष्यजातिरेकेव"
वैदिक प्रभाव तथा भौगोलिक परिस्थितियो के कारण समाज छोटी-छोटी इकाइयो मे बंटकर अपने अपने दायरे मे इतना कुण्ठित हो गया है कि उससे बाहर की बात सोचना भी कठिन हो गया है । जैनदृष्टि से यह बन्धन न है, न होना चाहिए । आगमो मे ऐसे अनेक उल्लेख आते है जिनमे अपने दायरे के बाहर सबन्ध किए गए । उदाहरण के लिए१ श्रीकृष्ण के लघुभ्राता गजसुकुमार क्षत्रिय थे, उनके विवाह की तैयारी सोमल ब्राह्मण की
कन्या से की गई थी। २ ततली प्रधान ने सुनार की कन्या पोट्टिला से पाणिग्रहण किया था । ३ क्षत्रिय सम्राट् वैश्रमणदत्त ने अपने पुत्र पुष्यनन्दी कुमार का विवाह वणिकपुत्री देवदत्ता से
किया था।
४ जितशत्रु नामक राजा ने चित्राङ्गद नामक चित्रकार की कन्या कनकमजरी से विवाह
किया था। ५ सम्राट् अणिक ने वणिक् पुत्री नन्दा से विवाह किया था।
ऐसे ही और भी अनेक उदाहरण है जिनसे यह स्पष्ट होता है कि विवाह के लिए आगम काल मे आजकल की तरह घेरे नहीं थे। वर्तमान मे समाज अपने अपने दायरे मे इतना बंधा हुमा महसूस करता है कि उसी मे पिसते रहने के बाद भी उससे बाहर नहीं निकल पाता। आश्चर्य होता है कि जैन समाज इतना बुद्धिवादी होने पर भी इन बुराइयो मे तीव्रता से जकडा हुआ है। वास्तव में पूछा जाए तो इस सकुचितता ने ही विवाह को एक समस्या बना दिया है।
कुछ बौद्धिक जागृत के साथ ये बन्धन टूट रहे है, किन्तु स्वच्छदता के साथ अधिक, विवेक के साथ कम । जैन-दृष्टि तथा सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से न तो ये बन्धन थे और न होने चाहिए। इसके बदले वर और कन्या के अधिक से अधिक योग्य होने का विशेष विचार करना चाहिए।
'अन्तकृत, वर्ग ३, अध्य०८ २ शाताधर्म, अध्य०१६ १ विपाक-सूत्र, मध्य०६ * उत्तराध्ययन, अध्य०१८ ५ बेणिकचरित
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