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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
जैन का अर्थ है--विवेक पूर्ण क्रिया में विश्वास करने वाला । किसी बात को केवल इसलिए मान लेना कि वह परपरा से चली आई हे अथवा किसी बात को इसलिए उपेक्षा करना कि वह नवीन है, ये दोनो बाते जैन चिन्तन के पूर्णत विपरीत है। अतएव चाहे वह आध्यात्मिक क्रिया हो या अन्य कोई सामाजिक व्यवस्था, दोनो के विषय मे विवेकपूर्ण प्रवृत्ति करना ही जैन-सस्कृति है ।
विवाह एक सामाजिक क्रिया है । सामाजिक व्यवहार को दृष्टि में रखकर उस पर विचार करना पडता है । जैन दृष्टि उन सभी सामाजिक व्यवस्थाओ को स्वीकार करने की अनुमति देती है, जिनमे विवेक बना रहे । सोमदेवसूरि ने स्पष्ट शब्दो मे कहा है
"सर्व एव हि नाना प्रमाण लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्व-हानि न यत्र न वतदूपणम् ॥"
-यशस्तिलक, उत्तरार्घ, पृ० ३७३
अर्थात् ऐसे सभी लौकिक विधि-विधान या क्रियाएं जैनो के लिए प्रमाण है, जिनमे सम्यक्त्व की हानि नही होती तथा व्रत में दूपण नही लगता।
जैन शास्त्रो मे अनेक महापुरुषो के चरित वणित है । विवेक की साक्षी पूर्वक उनमे से अच्छाइयां चुनना कठिन नहीं । कहा जाता है-"महाजनो येन गत स पन्था" अर्थात् महापुरुप जिस मार्ग से चले, वही श्रेष्ठ मार्ग है।
यह महाजन क्या है वहीं विवेकवान् व्यक्ति । जो स्वय नही सोच पाते, जिनमे उचित अनुचित का सपूर्ण रूप से निर्णय करने की क्षमता नहीं, उनके लिए ये महापुरुप आकाशद्वीप है। जिस रास्ते पर वे चले, उनके पद चिन्हो का अनुसरण करके उसी रास्ते पर चलने वाले व्यक्ति को भी उतना ही लाभ होता है, जितना स्वय मार्ग बनाकर चलने वाले व्यक्ति को।
विवाह के दो मुख्य अग है-वर और कन्या। जीवन भर के लिए इन्ही दो का एक हो जाना विवाह है, यह है भारतीय सस्कृति । पश्चिम वाले ऐसा नही मानते, उनकी अपनी संस्कृति है । वह भली है या बुरी, हम यह नहीं कहना चाहते, पर वह भारतीय संस्कृति के विपरीत अवश्य है । उनके यहाँ विवाह एक समझौता मात्र है । समझौते अधिक दिन तक नहीं टिकते । यही कारण है कि वहाँ पर सबध विच्छेद के अनेक प्रसग देखे जाते है।
विवाह की सफलता उक्त वर और वधू दो अगो पर ही प्रधानतया निर्भर करती है, इसलिए इनके सम्बन्ध मे विचार करना जरूरी है।
यौवन को प्राप्त प्रत्येक युवा और युवती विवाह के योग्य है । इस सदर्भ मे जैन आगमो मे प्राय तीन वाक्य आते है
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