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जैन-संस्कृति और विवाह
गोकुलचन्द्र एम० ए० आचार्य
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पाणिग्रहण या विवाह मानव के सामाजिक जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है । स्त्रो और पुरुष समाज रूपी यान के दो चक्र है । प्रत्येक सामाजिक तथा सास्कृतिक उपलब्धि मे इन दोनो इकाइयो का समान योगदान है। स्त्री के बिना पुरुष का पुरुषत्व अधूरा है और पुरुष के बिना स्त्री का स्त्रीत्व अपूर्ण । समाजविज्ञान की तरह शरीरविज्ञान तथा मनोविज्ञान की दृष्टि से भी विवाह अनिवार्य है।
जैन-संस्कृति मे विवाह की बात करते ही लोग प्राय. यह प्रश्न उठा देते हैं कि जैन धर्म तो त्याग-मार्ग है, जितने भी जैन महापुरुष हुए वे सभी त्यागमार्ग पर चले, इसलिए जैन-सस्कृति मे विवाह का मेल ही कहाँ बैठता है "
नि सन्देह जैन चिन्तन त्याग प्रधान है, किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नही कि जैन धर्म ने सामाजिक व्यवस्था के विषय मे बिल्कुल भी नहीं सोचा । जैन आचार्यों ने समाज-दर्शन पर भी उतना ही विचार किया है, जितना अध्यात्म-दर्शन पर । समस्त श्रावक धर्म इसका प्रमाण है । इतना अवश्य है कि जैन-सस्कृति आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की तरह निवृत्त्युन्मुख (त्यागोन्मुख) प्रवृत्ति मे विश्वास करती है। उसमे ग्रहण भी त्याग के लिए है, प्रवृत्ति भी निवृत्ति के लिए है।
जैन मान्यता के अनुसार इस युग के अतिम कुलकर नाभिराप ने पाणिग्रहण की वर्तमान प्रथा चलाई। उनके पुत्र ऋषभदेव, जिन्हे जैन धर्म का प्रथम तीर्थकर माना गया है, पहले व्यक्ति थे, जिनका नाभिराय ने विधिपूर्वक पाणिग्रहण सस्कार किया।
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