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गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति-अन्य
संस्थाओ के अग्रगामी साधु सन्यासियो को अपने-अपने धर्म-सपो (धर्मों) के साधु और सद्गृहस्थ (भक्त, उपासक या श्रावक) इन दोनो अगो का परस्पर धर्मानुवन्ध जुडा रखते हुए अलग-अलग सगठन रखना होगा और उनमे भी क्रान्ति-प्रिय दृष्टि सम्पन्न साधु-साध्वियो तथा क्रान्ति-मार्ग सहयोगी व्रतवद्ध सद्गृहस्थ भाई बहनो को अलग छांटना होगा। साथ ही असाम्प्रदायिक नीतिलक्षी जनसंगठन ग्रामो और नगरो मे बनाने होंगे, जनसेवको (व्रतवद्ध रचनात्मक कार्य कर्ताओ) के अध्यात्मलक्षी सगठन बनाकर उन्हें उन जन-सगठनो के सचालन और प्रेरणा का काम सौपना होगा। काग्रेस (राष्ट्रीय महासभा) के साथ उक्त दोनो का अनुबंध जोडकर उसे नीति धर्म प्रेरणा युक्त तथा जनलक्षी बनाना होगा, तभी धर्म सस्थाएं धर्म को सार्वजनीन बना सकेगी, जन-जन के जीवन में सक्रिय रूप धर्म का प्रवेश करा सकेंगी। और तभी जनशासन की बुनियाद पर जनतत्री राज्य शासन को जिनशासन धर्म-पुनीत कर सकेगा । कोरी भाषण वाजी और कोरे लेखन से धर्म-मस्थाएं न तो अनुभव-युक्त सही विचार ही दे सकेंगी और न तदनुरूप आचार ही जनजीवन में आएगा। धर्मनीतिविहीन एव जनलक्षिता-रहित जनतत्र खोखलातत्र होगा। और शायद वह भविष्य मे अधिनायक तत्र या फौजीतत्र भी बन जाए, जो धर्म सस्थाओ के लिए भी खतरनाक होगा।
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