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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
तत्र, अधिनायक तत्र या जबरदस्त तत्र वन गया। उनमे वयस्क मताधिकार बहुत-सो को जरूर मिला, पर हित उन्ही का हुआ, जो जनता को हाककर ले जा सकते थे। जब तक सामान्य जनता की चेतना जागृत नही होती, तब तक जनतत्र मे जनता का हित नहीं हो सकता। कुछ निहित स्वायियों के हाथ मे जनतन्त्र के पड जाने से वे जनता का व्यापक हित नही सोच और देख सकते, वे जनतत्र के ढाचे को जरूर पूजते है, किन्तु जनतत्र की आत्मा की उपेक्षा करते है। पश्चिम में इस प्रकार के जनतत्र के होने मे एक बडा कारण यह भी बना कि वहा प्रारम्भ से भारत की तरह की चातुर्वर्ण्य समाज व्यवस्था नही थी, इसीलिए राजतत्र भी निरकुग रहा, राजतत्र पर भी जैसे भारत में ब्राह्मणो और महाजनो का अकुश रहता था, ऋपि मुनियो का मार्ग दर्शन रहता था, वैसे पश्चिम में कोई अकुश था नहीं। धर्म गुरुओ, पादरियो, पोपो या पुरोहितो को राजतत्र में किसी प्रकार का हस्तक्षेप करने का अधिकार ही न था, परलोक के मामले मे ही वे प्रेरणा दे सकते थे, इहलोक व्यवस्था के बारे मे नही, जव कि भारत में राजतत्र भी जनसंख्या और धर्म सस्था की प्रेरणा से चलता था। इसीलिए पश्चिम में जब जनतत्र आया तब भी वह जनसस्था और धर्मसंस्था के अकुश से रहित होकर उसी राजतत्र की परिपाटी के रूप में आया। हालाकि वहा विरोध पक्ष जनतत्रीय सरकार पर अकुश रखते है, ऐसा कहा जाता है। सभव है वहाँ के शासन कर्ता पर प्रारम्भ से धर्मसस्था का अकुश न रहा, इसलिए वहां विरोध पक्ष को स्वीकार किया है। वहां की परिस्थिति के अनुसार जो हो सो हो । परन्तु भारत में विरोध पक्षो की दशा, उनकी बुनियाद और नीतियां भारतीय संस्कृति और भारतीय समाज व्यवस्था के अनुकूल नहीं है, इसलिए वे केवल विरोध करने के लिए और सत्ता हथियाने के लिए विरोध करते है । सत्तासीन पक्ष पर आक्षेप करते हैं और नाना प्रकार के हथकडे किया करते है । यही कारण है भारतीय लोकतत्र की अपनी एक विशेषता है। भारतीय जनतत्र मे विरोध पक्षो की जरूरत नही । अपि तु पूरक (जनमस्था) प्रेरक (जनसेवक मस्था) और मार्गदर्शक (साधु सस्था) दलों की जरूरत है, जो जनता को नीति और धर्म से युक्त राजनीति से घडकर, जनता लक्षी कार्यक्रमो द्वारा जन-जन को पुप्प की तरह सर्वाङ्गीण रूप से विकसित कर सके। और ऐसी धर्म मस्थाएं राजनीति से स्वय भागने या जनता को भगाने का प्रयल नही करके, जनता के नैतिक सगठनो द्वारा राजनीति पर धर्म का अकुश रखने का प्रयल करेंगी और जनतन्त्र मे राज्यशक्ति की अपेक्षा जनशक्ति वढाकर उसे जनलक्षी बनाएंगी।
प्राचीन काल में धर्म-सस्थाओ ने यही काम किया था। यद्यपि उस समय राजतत्र था, फिर भी गासनकर्ता पर नैतिक-धार्मिक अकुश रखने का कार्य धर्म-सस्थाएं करती थी। धर्म-सस्था के भारतीय समाज व्यवस्था मे दो अग मुख्य माने जाते थे ।
पहला था ब्राह्मण वर्ग, जो सारे समाज की नैतिक चौकसी रखता था, राज्यकर्ता पर भी अकुश रखता था। कोई शासक अगर किसी व्यक्ति पर अन्याय-अत्याचार करता या अपनी मर्यादालो का उल्लघन करता था तो उस पर जनता द्वारा अकुश लाकर पदच्युत तक कर देने का वह अधिकार रखता था।
और दूसरा था-ऋपि मुनि वर्ग, जो समाज से ऊपर उठा हुआ था, निस्पृह, निलेप और स्व-पर कल्याण में रत रहता था। वह भी समाज की गतिविधि पर पूरा ध्यान रखता था और जहां कही भी गडवडी
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