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________________ जनतंत्र में धर्म-संस्थाएँ मुनि श्री नेमिचन्द्रजी ++++++++++++ +++++++++++++++++++ ___ कोई भी तत्र अपने-आप मे कोई भलाई नहीं है। जो तत्र जनता की सुरक्षा कर सके, उसके हर तरह के विकास में सहायक हो सके, उसकी हर तरह की सुव्यवस्था कर सके, वही तत्र अच्छा होता है । वैसे राजतत्र, गणतत्र, अधिनायकतत्र या जनतत्र आदि सभी राज्य प्रणालियों है। एक युग था, जब भारत का राजतत्र धर्म पुनीत था, राजा या शासक स्वय श्रम द्वारा अर्थोपार्जन करके प्रजा का पालन, रक्षण और सेवा करता था। चारो वर्णों को अपने-अपने कर्तव्य मे परायण और दक्ष रखने मे उसका पूरा सहयोग देता था। जनता मे से दुर्बल से दुर्बल और निर्धन से निर्धन व्यक्ति भी शासक तक पहुँच कर अपनी फरियाद और पुकार कर सकता था और शीघ्र तथा शुद्ध न्याय प्राप्त कर सकता था। उस स्थिति मे राजतत्र या एकतत्र किसी को खटकता नही था। परन्तु शासको के जीवन मे त्याग और सेवा के बदले भोगलिप्सा, विलासिता, सत्ताभिमान एव करो द्वारा शोपण वृत्ति आई, तब से राजतत्र के प्रति जनता मे नफरत पैदा होने लगी। यद्यपि हर युग मे अच्छे और बुरे, प्रजा-हितैषी और निरकुश दोनो ही प्रकार के शासक रहे है परन्तु राजतत्र मे प्राय राजा के सामने प्रजा को झुकना पडता, प्रजा बोल नही सकती थी। कोई अत्याचारी और निर्दय राजा होता तो विरोधी आवाज निकालने वाले को दबा देता, कुचल देता या खत्म करवा देता। यही कारण है कि पश्चिम मे पहले फास, ब्रिटेन और बाद में अमेरिका आदि देशो मे जनतत्र का उदय हुआ। उसके पीछे भावना यही थी कि दबी हुई, पिसी हुई, पीडित जनता की आवाज मुख्य बने । जनता अपनी आवाज सरकार तक पहुंचा सके, जनता का अभिक्रम बढे, जनता सत्ता पर अकुश रख सके, यानी राज्य प्रणाली जनता लक्षी बने । परन्तु पश्चिम का जनतत्र सही माने मे जनतत्र न रहकर पूंजीवादी २७७
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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