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________________ स्थानकवासी जैन-परम्परा इतना सब जागरण और प्रकाश होते हुए भी दूसरी ओर स्थानकवासी परम्परा के कुछ लोग मानो सोलहवी सदी मे जी रहे है। वे अब भी राजाओ, ठाकुरो और अनीतिमान धनिको की गुणगाथाएं गाते नही अघाते, अब भी युगान्तरकारी धर्मलक्षी और नीतिमय बातो को जनजीवन में उतारने के प्रयोग को देखकर नाक भी सिकोडते है, वे अब भी सकीर्णता के सिकजो और कुरूढिवाद के दडबो मे साघुवर्ग को डटे रखना चाहते है, लोकाशाह ने अपने युग मे जो क्रान्ति की थी, उससे भी पीछे समाज को और अपने को धकेलना चाहते है, जैन धर्म विश्वधर्म है, स्थानकवासी परम्परा क्रान्तिकारी रही है, यह कर्ण प्रिय शब्द सुनना पसद करते है, किन्तु कोई साधुसाध्वी जैन धर्म को विश्वधर्म बनाने के लिए सक्रिय कदम उठाएगा या स्थानकवासी परम्परा मे धर्मानुकूल, युगानुरूप क्रान्ति करेगा तो उसे धकियाने, अप्रितिष्ठित कराने, बहिष्कृत करने और उस पर नाना असत्य आक्षेप लगाकर उसे समाज की नजरो मे गिराने का प्रयल करेंगे। इसलिए अब स्थानकवासी परम्परा को अपनी हाजमा शक्ति और उदारता बढानी पडेगी, आज के जनतन्त्रीय युग मे मौलिक विज्ञान ने जहाँ सारे विश्व को स्थूल दृष्टि से एक कर दिया है, वहाँ सूक्ष्म दृष्टि से हृदय से एक करने का काम स्थानकवासी जैन परम्परा को करना होगा। गाधीजी के द्वारा जगत् को चमत्कृत कर देने वाले सामूहिक अहिंसा प्रयोग जैन साधु-श्रावकवर्ग को अपनाना पडेगा। तभी जैन धर्म विश्व-धर्म बन सकेगा। इसके लिए उन्हे चार कार्यक्रम एक साथ हाथ में लेने होंगे १ विश्व की समस्त मानव जाति का धर्म दृष्टि से एक ऐसा जन-सगठन बनाना पडेगा, जिसकी बुनियाद मे नीति हो और जिसका असर जनतन्त्र पर पडे । २ महात्मा गाधी जी ने जैसे राष्ट्रीय महासभा और जन-सगठन का प्रभाव ब्रिटिश सल्तनत पर डाला था, वैसा ही प्रभाव उक्त विश्व जनसगठन द्वारा परिष्कृत राष्ट्रीय महासभा पर डालना पडेगा। ताकि वह सयुक्त राष्ट्र संघ के जरिए विश्व राजनीति को शुद्ध रख सके । ३. और इन दोनो बातो को अमली बनाने के लिए जैन धर्म के वर्तमान सभी सम्प्रदायोउपसम्प्रदायो के श्रावक-श्राविकाओ मे से, और रचनात्मक कार्यकर्ताओ मे चुन-चुन के एक व्रतबद्ध व व्यापक स्पष्ट दृष्टि वाले जनसेवको की एक विश्व व्यापी सस्मा अलग से बनानी पडेगी। ४ इन सभी सस्थाओ को प्रेरणा व मार्गदर्शन देने और जहाँ ऐसी संस्थाएं न हो, वहाँ खडी करवाने और वहा उन्हे प्रतिष्ठित करने के लिए जैन धर्म के सभी फिरको मे से क्रान्ति-प्रिय साधुसाध्वियो को छाटकर उन्हे यह धर्म कार्य सौपना होगा और लोकाशाह जैसे युगद्रष्टा श्रावको व श्राविकाओ को उन साधु-साध्वियो को पृष्ठबल देकर प्रोत्साहित करना पड़ेगा। आशा ही नहीं, अपितु पूर्ण विश्वास है कि जहाँ श्रावको पर स्थानकवासी जैन सघ की तरह धर्मक्रान्ति को पचाने और आगे बढाने का तत्व पड़ा है। उस स्थानकवासी जैन परम्परा के लिए वात प्रत्यक्ष कर बताना कोई कठिन काम नहीं है। मूल सिद्धान्तो को सुरक्षित रखते हुए द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को देखकर उत्तर गुणो मे सशोधन-परिवर्धन करते हुए रहने मे मानने वाली स्थानकवासी जैन परम्परा के सिवाय ससार और किससे आशा रखेगा? २७५
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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