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________________ गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति-प्रन्थ द्वारा दूसरे के तर्क-शुद्ध विचारो को ग्रहण करने पर खभाती ताला लगाने की चेप्टा-यहां कम ही हुई है। यही कारण है कि स्थानकवासी परम्परा के साधु गीता और आचराग का समन्वय करते है । जैन और बौद्ध धर्म के शास्त्रो का समन्वय बता सके है । महाभारत और रामायण पर अपनी लेखनी चला सके है। कवीर विचारधारा और स्थानकवासी परम्परा मे सामजस्य बैठा सके है । गाधी विचार धारा को जैन धर्म के साचे मे ढाल सके है और गाधी स्फुरित अहिंसा के सामुहिक प्रयोगो को जैन तप त्याग से सम्पर्क करके धर्म को सामाजिक रूप दे सके है, हजागे मासाहारी लोगो को उनके धर्म की भाषा मे समझाकर सच्ची राह पर ला सके हैं । गुजरात, पजाब, राजस्थान और महाराष्ट्र आदि विविध प्रदेशो की विविध परम्परानुकूल आचारो के अनुसार अलग-अलग धर्माचार मे रहते हुए भी उन उन प्रदेशो मे विचरण करने वाले साधु साध्वियो मे एक मूत्रता कायम कर सके है । जहाँ दूसरे जैन सम्प्रदायो मे कही नारी प्रतिष्ठा, साध्वी को व्याख्यान का अधिकार, रात्रिप्रवचन, ध्वनिवर्द्धक यत्र में विशाल सस्यक जनता हो वहां बोलन आदि युगस्पी और न्याय वातें नही, वहाँ स्थानकवासी परम्परा अग्रसर बनी है। हालाकि व्यक्ति स्वातन्त्रय से थोडा-सा नुकसान अवश्य हुआ है । वह यह कि कुछ स्थानकवासी साधु साध्वियो मे कट्टर पथीपन आया है, वे अपने को उत्कृष्ट क्रियापात्र समझकर दूसरे साधुवर्ग को हीन या शिथिलाचारी समझने लगे, साथ ही स्थानकवासी परम्परा को साधुवर्ग बाईम अलग-अलग मघाडो, गिरोहो मे वाटा गया, जिससे यह वाईस सम्प्रदाय भी कहलाने लगा था। इससे एक सूत्रता और सामजस्य व समन्वय को काफी धक्का पहुंचा और वैचारिक व आचारिक जडता पनपी । अनुशासन के नाम पर जड पावन्दियां लगा दी गई, जिससे साधु वर्ग के विकास में काफी रुकावट आई । साघुवर्ग के इस कठमुल्लापन का असर श्रावक वर्ग पर भी पड़ा और वह भी उदारता के बदले सकीर्णता का राही बन गया, परन्तु यह वात जरूर है कि इतना होते हुए भी सब मे अधिक व्यक्तिपूजा की अपेक्षा सघनिष्ठा का तत्त्व सुरक्षित रहा। उपर्युक्त पाचो बातें स्थानकवामी परम्परा मे अधिक मात्रा में होने से यह जैन धर्म को विश्वधर्म वनाने मे बहुत वडा हिस्सा अदा करती रही है। वर्तमान परिस्थिति और स्थानकवासी जैनो का कर्तव्य स्थानकवासी जैन परम्परा मे क्रान्तिकारी तत्वो का बाहुल्य होने से आज भी इसमे अनेक क्रान्तिप्रिय साधु-साध्वी श्रावक श्राविकाएं है, जो युग को परख सकते है। मूल सिद्धान्त को युग के साथ फिट कर सके हैं। ग्राम धर्म, नगर धर्म, राष्ट्र धर्म मादि को जहाँ हेय समझा जाने लगा था, वहाँ उसका व्यावहारिक रूप के साथ दृढतापूर्वक प्रतिपादन कर सके हैं । गुजरात मे बनासकाठा, सूरत जिला, कच्छ, सौराष्ट्र और भालनलकाठा प्रदेश मे धर्म दृष्टि से समाज रचना का जो प्रयोग वर्षों से चल रहा है, उसमे स्थानकवासी परम्परा और गाधी विचारधारा के तत्वो की ही सारी पृष्ठभूमि है। आज तो वह प्रयोग अन्तर्मान्तीय और अन्तर्राष्ट्रीय रूप ले रहा है, और सर्व जनमान्य बन रहा है, परन्तु उसकी नीव की इंट स्थानकवासी जैन परम्परा ही वनी थी। २७४
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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