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स्थानकवासी जैन-परम्परा
है, जिन्होने इसमे सुधार किया है। जैसे मुख-वस्त्रिका, मुख पर डोरे से बाधने की प्रथा प्रारम्भ से स्थानकवासी परम्परा मे नही थी, किन्तु जब मुनियो ने देखा कि बोलते समय मुंह के आगे कपडा रखने मे बारम्बार भूल हो जाती है तो उन्होने डोरा डालकर मुंह पर वस्त्र वाधने की परम्परा चलाई । आज तो यह साम्प्रदायिक चिन्ह बन चुकी है । परन्तु उस समय अवश्य ही यह सशोधन काफी विचारपूर्वक किया गया था।
स्थानकवासी जैन परम्परा मे आपको लोक-संग्रह की मात्रा अधिक दिखाई देगी, उसका कारण है-भिक्षाचरी और पादविहार का क्षेत्र व्यापक होने से व्यापक लोक सम्पर्क । साथ ही स्थानकवासी साधु वर्ग मे आपको यह विशेषता भी नजर आएगी कि वे पैदल बिहार में अपना सामान स्वयं उठाकर चलते है, और तप-त्याग की मात्रा अधिक होने से उनके साथ रहने वाले भाई बहनो से आहार लेने का अधिक परहेज रखते है, जिससे निसर्ग-निर्भरता-यानी वस्ती मे से सहज प्राप्त आहार पर आश्रित अधिक रही है।
एक और विशेषता स्थानकवासी जैन परम्परा मे यह मिलेगी कि यहाँ जैन धर्म की गुण-पूजा और अनेकान्त की दृष्टि को व्यावहारिक रूप देने का प्रयत्न किया गया है । जैन धर्म के पच परमेष्ठी महामन्त्र में किसी व्यक्ति विशेष का नाम न लेकर तद्गुणप्रधान साधक के प्रति आदर व्यक्त किया गया है। जैसे 'नमो अरिहताण मे किसी भी नाम का- राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गिव आदि- राग द्वेप-रहित पुरुष हो, उसे नमस्कार किया गया है, "नमो सिद्धाण" मे किसी भी देश, वेप, लिंग धर्म-सम्प्रदाय, जाति का किसी से भी प्रेरणा प्राप्त व्यक्ति क्यो न हो, यदि वह वीतरागता की साधना कर चुका है, तो उस मुक्त पुरुष को नमस्कार किया गया है। इसी तरह 'नमो आयरियाण' और "नमो उवज्झायाण' मे है । 'नमो लोए सव्वसाहूण" मे तो यह बात अधिक स्पष्ट है। जगत् के सभी साधुता की साधना करने वाले किसी भी धर्म-सम्प्रदाय के व्यक्तियो को नमस्कार किया गया है । स्थानकवासी परम्परा मे यह गुण-पूजा और समन्वय की वृत्ति अधिक मात्रा मे आई। श्रीमद् रायचन्द्र जी ने, जो स्थानकवासी परम्पग से विशेप प्रभावित थे, म० गाधी जी जब ईसाई धर्म की ओर झुककर उसे स्वीकार करने लगे थे। तब यही कहा था कि आप प्रत्येक गुणी के प्रति आदर रखिए, उससे प्रेरणा लीजिए, किन्तु हिन्दू समाज मे वह सब बाते है, जो ईसाई सघ मे है। तब से गाधी जी को सर्व-धर्म समन्वय की दृष्टि मिली । स्थानकवासी जैन साधु-साध्वियो मे समन्वय दृष्टि वालो मे मेरे गुरुदेव म०, कविवर्य नानचन्द्रजी महाराज, शतावधानी प० मुनि श्री रत्लचन्द्र जी म०, पूज्य जवाहरलालजी म० कविवर अमरचन्द्र जो म०, जैन दिवाकर चौथमल जी म०, साध्वी उज्ज्वलकुमारी जी, मुनि प० श्रीमलजी म०, सुशीलकुमारजी आदि के नाम उल्लेखनीय है ।
स्थानकवासी जैन परम्परा मे आपको व्यक्ति स्वातन्त्रय के साथ सघनिष्ठा की मात्रा अधिक मिलेगी। यही कारण है कि इसमे अलग-अलग शैली, दृष्टि और विचार धाराओ के साधु-श्रावकगण मूल लक्ष्य को सामने रखकर अधिक चलते है। इससे उनके व्यक्तित्व को भी क्षति पहुंची है और सघ-निष्ठा भी अधिक बढी । यत्र की तरह एक माँचे मे ढालने, या किसी के अन्त स्फुरित सत्य को कुचलने या उसके
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