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गुरुदेव श्री ग्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
यह तो पहले ही कहा जा चुका है कि स्थानकवासी जैन परम्परा धर्मक्रान्ति में से अस्तित्व में आई है। इसलिए इसने जैन धर्म को जातिपाति, आयत. माम्प्रदायिकता, प्रान्तीयता, रगभेद, राष्ट्रभेद आदि विकारो से मुक्त रखकर शुद्ध तथा व्यापक रूप में जनता के सामने रखा है, धर्म को भय और प्रलोभन से, मत्ताधीगो और धनाधीगो के आश्रय से मुक्त रखा है । ईमाई मिग्नरियो की तरह न तो इम परम्परा ने प्रलोभन देकर अन्धधर्मी लोगो को धर्म-सम्प्रदायान्तर करवाया है, और न इस्लाम की तरह तलवार दिखाकर ही जबरन धर्म परिवर्तन करवाया है, न तो धर्म को सम्प्रदायों के चौको मे बन्द किया है और न धर्म को जातिवाद के बन्धनो मे जकडा है, न धर्म का लौकिक प्रथाओ और रीतिरिवाजो व कुरुढियो के साथ गठजोड किया है और न ही उमे आडम्बरो एव निर्थक क्रियाकाडो से मढा है।
मध्य युग मे जैन धर्म को भी वैष्णव धर्म के जातिवाद और छाछूत का चेप लगा । साधु वर्ग में भी प्राय वणिक् जाति के व्यक्ति को ही साधु दीक्षा दी जाती, भिक्षा भी प्राय वणिक जैनो के यहा से ली जाती और छूआत भी साधु श्रावको मे काफी जड जमा चुकी थी। परन्तु स्थानकवासी परम्परा की यह विशेपता रही कि इसमे प्रारम्भ से ही वणिक् कोम के अतिरिक्त जाट, सुनार, दर्जी, अहीर, राजपूत, पटेल भावसार आदि कोम के लोगो को मुनि दीक्षा देने की उदारता और मुनियो के सभी कामो के शाकाहारी घरो से भिक्षा लेने की वृत्ति रही है । यद्यपि छूआत का रोग स्थानकवासी जैन-परम्परा को भी लग चुका था, किन्तु इसकी मूलवृत्ति मे यह वात नही थी, इसलिए इसमें से बहुत से स्थानकवासी माधुओ ने महर्षि दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द एव महात्मागावी जी के अछूतोद्धार आन्दोलन के समय में जैनधर्म की मूल आत्मा से छुआछूत को विरुद्ध समझकर अछुतो को अपनाया, उन्हे धर्म पालन का, धर्मस्थान में प्रवेश, शास्त्रश्रवण एव समान आमन का और निर्मासाहारी हरिजनो की साधुवर्ग को भिक्षाप्रदान का अधिकार दिलाया। इसीलिए स्थानकवासी परम्परा को साधु वर्ग आम जनता में जैनधर्म का प्रवेश करा सका। मोढवाणिक जाति के महात्मा गाधी जी के कुटुम्ब का भी श्रद्धेय स्थानकवामी माधुवर्ग वन सका । स्वय महात्मा गाधीजी ने स्थानकवासी जैन साधु श्री बेचरजी स्वामी मे विलायत जाते समय अपनी माता की साक्षी मे तीन प्रतिनाएं ली थी, जिन्हे पालन कर वे जीवन में प्रगति कर सके । स्थानकवामी जैन माधु साध्वी का प्रत्येक धर्म के लोगो से गाँवो में प्राय मपर्क हो जाता और वे माधु माध्वियों के प्रति अत्यन्त श्रद्धा से देखते, उमका कारण है, उनके द्वाग साम्प्रदायिकता, क्रियाकाण्डो व आडम्बगे मे रहित शुद्ध धर्म का निरूपण एव आचरण ।
जव कोई भी धर्म क्रियाकाण्डो, आडम्बरो से घिर जाता है, तो उसकी मूल आत्मा निकल जाती है, धर्म की असली ताकत कम हो जाती है यही बात जैन धर्म मे हुई । मूर्तिपूजा के साथ-साथ, तपस्याओ
और बोलियो मे आडम्बर और प्रदर्शन अधिक वढने लगे, अनेक निष्प्रयोजन क्रियाकाण्ड उनके साथ जोड दिए गए, फलत धर्म को शुद्ध रूप में जानना-पहचानना भी कठिन हो गया। स्थानकवासी परम्परा ने शुरू से ही व्यर्थ क्रियाकाण्डो, आडम्बरो और प्रदर्शनो पर प्रहार किया। धर्म के मूल लक्ष्य को मामने रखकर सादगी से, सयमभाव बढाने वाली प्रदर्शन रहित धर्मक्रियामओ को स्थान दिया था । यद्यपि आज तो यहाँ भी जडता आ चुकी है। परन्तु वीच वीच मे ऐसे सगोधक साधु-श्रावक इस परम्परा में पैदा हुए
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