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स्थानकवासी जैन-परम्परा
क्रान्ति की चिनगारी हमेशा बहुत छोटे से रूप मे हुआ करती है, नदी का मुहाना बहुत ही पतली धारा के रूप मे होता है, परन्तु वही आगे जाकर विस्तीर्ण बन जाती है । लोकाशाह की युगान्तरकारी शर्त कुछ साधुओ और यतियो के गले उतरने लगी। मुनि धर्मसिंह जी, मुनि धर्मदास जी एव लवजी ऋपि लोकाशाह की क्रान्ति के पुरस्कर्ता वने । यद्यपि ये अलग अलग समय मे लोकाशाह के निर्दिष्ट पथ पर आए है। इन्होने चैत्यवास छोडकर सहजभाव से स्मशान, पर्वत, गुफा, अरण्य, वृक्षतल या जीर्णशीर्ण या शून्य जो भी शुद्ध स्थान साधना के लिए मिल गया, वहाँ ठहरना शुरू किया । शुरू मे लोग इन्हे चिढाते कि ये तो "दूढिया" है। 'टूढा' शब्द राजस्थान मे जीर्णशीर्ण मकान के अर्थ मे प्रयुक्त होता है। ढूढो मे रहने वाले होने से टूडिया कहा जाता था । कोई इन्हे 'ढूढक' भी कहते-जिसका अर्थ होता है . सत्य को ढढने वाले' । जो भी हो, सत्य की शोध करने की उनमे अदम्य तडफन थी । और व्यापक जन सम्पर्क के लिहाज से उन्होने विविध जनपदो मे पादविहार करना और जैनेतर सभी निर्मासाहारी घरो से भिक्षा करना शुरू किया, व्यक्ति पूजा की अपेक्षा गुणपूजा और मूर्तिपूजा की अपेक्षा भावपूजा का पथ अगीकार किया। उस समय के यति वर्ग मे से भी बहुत से यतियो ने नया मोड लिया । उनमे केशव जी, कुवरजी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं, उन्होने राजसी ठाठवाठ, सत्ताधारियो की प्रशसा एव ज्योतिपबाजी, मत्रबाजी आदि छोडकर साधुता की शुद्ध पगडडी स्वीकार की।
यही कारण है कि श्वेताम्बर मू० पू० सम्प्रदाय के उस समय परिगणित ८४ गच्छो मे से पायचदगच्छ, खरतरगच्छ और अचलगच्छ के सिवाय वाकी के गच्छ प्राय लुप्त हो गए और इन तीन गच्छो के सिवाय आज जितने भी मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के तप गच्छीय साधु साध्विया हैं, वे प्राय स्व० पू० आचार्य श्री विजयानन्दसूरि जी म० (स्थानकवासी-सम्प्रदाय के भूतपूर्व मुनि-आत्मारामजी महाराज) के ही आनुवंशिक है । मतलब यह कि स्थानकवासी जैन-परम्परा मे से ही यह पुननिर्माण हुआ है।
___ इससे यह भी प्रतिफलित होता है कि लोकाशाह-निर्दिष्ट स्थानकवासी जैन परम्परा अमुक समय नक अलग सम्प्रदाय नही बनी थी, वल्कि मौलिक रूपान्तर की एक प्रकिया बनकर रही । साथ ही उसने अपना असर दूर-दूर तक दिखाया और अनेक साधु-साध्वियो एव श्रावक श्राविकाओ को इस आडम्बर विहीन त्यागमार्ग की ओर आकर्षित किया । यही नही, दिगम्बर सम्प्रदायो मे तारणपथी सम्प्रदाय पर भी स्थानकवासी जैन-परम्परा ने अपना प्रभाव डाला। जैन धर्म को विश्व धर्म बनाने मे हाथ
किसी भी धर्म को विश्व धर्म बनाने के लिए उसके अनुगामी गृहस्थ वर्ग एव साधु वर्ग मे पांच बाते हानी जरूरी है (१) धर्म का शुद्ध और व्यापक रूप मे प्ररूपण व आचरण (२) निरर्थक क्रियाकाण्डो एव आडम्बरो के जाल से रहित व्यापक आचार । (३) व्यापक लोक सपर्क के साथ, तप-त्याग एव निसर्गपरायणता (४) साम्य भाव से गुण-पूजा की वृत्ति (५) व्यक्ति स्वातन्त्र्य के साथ सघनिष्ठा । उपर्युक्त पांच बाते स्थानकवासी जैन परम्परा मे आपको अधिक मात्रा मे मिलेगी।
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