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गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति-प्रन्य
वान् और मुदृढ नीव पर टिका रहा है । उसके बाद वह ज्वेताम्बर और दिगम्बर दो फिरको मे बट जाता है । दिगम्बर सम्प्रदाय दक्षिण भारत में अधिक फैला । इसी कारण दक्षिण मे जगद्गुरु शकराचार्य के वैदिक सब पर जैन मघ का काफी प्रभाव पड़ा है। श्री गकराचार्य के करतल-मिक्षा तस्तलवास इस मूत्र पर दिगम्बर जैन मुनिवृत्ति की पूरी छाप पडी है और यह भी मानना होगा कि दक्षिण का जैन धर्म श्री शकराचार्य के अद्वैत और रामानुजाचार्य के जातिवाद म्पृश्यास्पृश्यता व शुद्धाशुद्धता की बातो मे भी अन्यधिक प्रभावित हुआ है। भारत के उत्तर पूर्व और पश्चिम भाग मे बेताम्बर सम्प्रदाय अधिक फैला । किन्तु उसने अपने फैलने के लिए मूर्ति, छत्री, पदचिन्ह मन्दिर आदि जो मावन अपनाए उसके माथ आडम्बर धनमग्रहवृत्ति और भोगवाद जुड़ गया। मन्दिर ऐन्द्रिक आकर्षण के कारण बने । माधु वर्ग इन मन्दिरों में निवास करने लगा और श्रावको को दान की महिमा समझाकर, मन्दिर के नाम से धनमग्रह करने लगा। निमगं वृत्ति पर से श्रद्धा डगमगाने लगी, फलत भिक्षाचरी के बदले खानपान । आदि के साधन जमा करने लगा, धन मग्रह के लिए ज्योतिप, वैद्यक और व्यावहारिक शिक्षण के व्यवसाय में प्रत्यक्ष पडने लगा। इतना ही नहीं, मघशक्ति की नीव व्यापक जन समुदाय के तपत्याग से सुदृढ करन के बदले राजाओ, वादशाहो, ठाकुरो और जागीरदारो को यत्र-मत्र-तत्र आदि का चमत्कार बता कर सत्ता द्वारा मुदृढ करने में लग गया, इसमे मघ की नीव तो मुदृढ न हुई, पर कई साधुओ की व्यक्तिगत महिमा जहर वढी, उन्हें छत्र-चामर-पालकी आदि गामको की ओर से भेंट में मिली, कडयो को जागीरी या जमीन इनाम में मिली । नतीजा यह हुआ कि माधु वर्ग मे गियिलाचार और स्वेच्छाचार बढ़ता गया। चैत्यवाम गढ माधु सस्था की अघोगति का परिचायक है।
ठीक इसी ममय लोकागाह ने 'क्रान्ति का गखनाद किया। उन्होंने साधुवग को नम्रतापूर्वक ममझाया कि अप्रतिबद्ध विहारी माधु को परिग्रहवृद्धि के इस सम्बन्ध में क्या मगेकार ? एक स्थान पर निवास, मोह और आसक्ति वटाने वाला है, इसे छोडिग, चंन्य में निवास करना ठीक नही, धर्माराधना करने के लिए माधु को निवास योग्य जो भी स्थान मिल जाए, उसमे कल्पनीय समय पर्यन्त रहा जा मकता है। और जैन धर्म ने तो हमेगा गुण पूजा को स्थान दिया है, व्यक्ति पूजा को या किमी व्यक्ति की मति की पूजा को कही स्थान नहीं दिया है । इसलिए आप अपने माधुधर्म को सुरक्षित रखत हुए पैदल विहार करिए, चमत्कार या आडम्बर आदि द्वारा मत्ताधारियो मे प्रसिद्धि और भोग्य या राजसी साधन मामग्री प्राप्त करके मुकुमारता में वृद्धि करना और पालकियों में बैठकर विचरण करना छोडिए । अन्यथा आप व्यापक जनमपर्क करके धर्मवृद्धि नही कर सकेंगे, प्रत्युत द्रव्य क्षेत्र-काल-भाव के प्रतिवध मे पड जाएंगे । भिक्षाचरी केवल जैन लोगो तक ही सीमित न रखें, बल्कि सभी निर्मामाहारी घरो से भिक्षा लेकर लोक नम्पर्क का क्षेत्र व्यापक बनाएँ।
___ उस समय के साधु वर्ग को "अम्मापिउसमाणा' बनाकर लोकायाह ने हितबुद्धि मे प्रेरित किया। परन्तु नग्न मत्य हमेगा कटु होता है, वह परम्परा पूजक एवं गतानुगतिक निहित-स्वार्थी लोगों के तुरन्त गले नहीं उतरता । लोकाशाह का भी यही हाल हुआ । चारो ओर से उनका प्रचण्ड विरोध हुआ । परतु लोकागाह साहम पूर्वक धर्मक्रान्ति के आग्नेय पथ पर आगे वटते गए।
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