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स्थानकवासी जैन परम्परा
"धर्म सर्वोच्च मंगल है | वह धर्म अहिंसा, सयम और तप की त्रिवेणी के सगम होने पर ही होता है । उस धर्म का आचरण करने वाले के चरणो मे सिर्फ मानव समाज ही नहीं, अपितु प्राणीवर्ग और देवता भी झुकता है ।'
धर्मप्राण लोकाशाह ने अपने जीवन मे इस त्रिवेणीस्वरूप धर्म को अपनाया, और जहाँ-जहाँ श्वेताम्बर जैन-सघ मे अहिंसा की क्षति, असयम, परिग्रह तथा आडम्बर को बढावा दिया जा रहा था, साघु जीवन सहज तप त्याग के बजाय अपनी पूजा प्रतिष्ठा और भोगवाद की और झुक रहा था, साधुजीवन मे सुकुमारता और चत्यो में ही डेरा जमा कर बैठे रहने व चैत्य के नाम से धन संग्रह करने की मनोवृत्ति पनपने लगी थी, वहाँ धर्मप्राण लोकाशाह ने उसे रोकने के लिए जोरदार आन्दोलन किया । वह आन्दोलन साधुमार्ग की पृष्ठभूमि पर से किया गया था। सारे श्वेताम्बर जैन सघ मे उस आन्दोलन का व्यापक प्रभाव पडा और सघ मे एक भूचाल सा आ गया । उस समय के उनके समकालीन कमलसयम आदि मुनियो ने उनकी आलोचना करते हुए लिखा है
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गर्भागि पडिय सघल लोक, पोसालइ पणि आवइ फोक । लुकइ बात प्रकासी इसी, तेहनु शिष हुउ लखमशी ॥
इसका भावार्थ यह है कि सारा का सारा समाज लोकाशाह की बात पर चौक पडा, उनकी सत्यस्पर्शी बातो को सुनकर पुरातन प्रणाली के अनुसार चलने वाले लोगो के सिंहासन डगमगाने लगे । सारे समाज मे खलबली मच गई और कहा जाने लगा कि लोकाशाह ने पोपधशाला की चालू परम्परा मे इतना मौलिक परिवर्तन कर दिया है कि पौपधशाला मे उनका ( रूढिपरायणो का ) आना बेकार हो लोकाशाह ने ऐसी-ऐसी बाते ( मौलिक ) प्रकट कर दी है कि सारा समाज उसकी ओर दृष्टि गडाए बैठा है, आपत हो रहा है, और लखमशी तो उसका शिष्य ही वन बैठा है।
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जैन संघ के इतिहास लेखको को यह बात तो निर्विवाद माननी ही पडती है कि लोकाशाह ने उस के श्वे० जैन समाज मे एक नई चेतना प्रकट कर दी थी, लोगो को अहितकर रूढिपरम्परा को बदलने के लिए सोचने को मजबूर कर दिया था। इतना तो कहना ही पडेगा 'लोकाशाह ने उस समय जो कुछ परिवर्तन किया, या सूचित किया, या साधु श्रावको मे कराया, उसका मूल आधार धर्म था, जिसका रहस्य उन्होने शास्त्र लेखन व चिन्तन से पाया था । सारे श्वे० जैन समाज के सामने उन्होने मुख्यतया तीन सिद्धान्त रखे थे।
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धर्म की ओट में परिग्रह, आडम्बर या भोगवाद को बढावा नही मिलना चाहिए
चतुविध सघ के अग्रगामी साधुवर्ग का जीवन मुख्यत निसर्ग निर्भर होना चाहिए
सघ शक्ति सुदृढ होनी चाहिए, और वह जनाधारित होनी चाहिए, सत्ताधारित नही
सघ में नवजीवन निर्माण
जैन इतिहास पर दृष्टिपात करने से लगता है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी तक जैन सघ प्राण
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