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________________ स्थानकवासी जैन-परम्परा मुनि श्री सतवालजी +-+-+-+-+-+-+-+-+-+ ----+---+-+-+-+-+-+-+-+ -+- स्थानकवासी जैन परम्परा सच्चे माने में जैन परम्परा है, क्योंकि वह श्रमण-मस्कृति के अधिक अनुकूल है। श्रमण-मस्कृति मातत्यरक्षा के माय द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अनुसार परिवर्तनशीलता को मानती है । और ये दोनो तत्त्व स्थानकवासी जैन परम्परा में विशेप स्प से अवतरित हुए है। यही कारण है कि इसी परम्परा ने सर्व प्रथम "साधुमार्गी" गब्द अपने लिए व्यवहृत किया है । इसका एक अर्थ हैसाधुमार्ग का अनुसरण करने वाला सघ । साधुमार्गी शब्द की ऐतिहासिक छानवीन करने से पता लग जाएगा कि वास्तव में यह सघ जीवन और जगत् के उच्च मस्कर्ताओ द्वारा भारतीय मस्कृति की आत्मा के साय अभिन्न अनुवन्ध पूर्वक विश्वात्मागो के लिए आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने में अग्रदूत वना है। धर्मप्राण लोकाशाह यद्यपि स्थानकवासी जैन परम्परा के मुख्य पुरस्कर्ता धर्मप्राण लोकागाह ये और इस सम्प्रदाय को प्रचलित हुए पाच शताब्दियो से अधिक समय नहीं वीता । लेकिन इस बात का पक्का मबूत मिलता है कि धर्मप्राण लोकाशाह ने अपना कोई अलग सम्प्रदाय नही बनाया था और न पृथक् मम्प्रदाय स्थापित करने में उनका विश्वास ही या । परन्तु वे एक लिपिकार थे और गास्त्र-लेखन के माथ तदविपयक चिंतन के फलस्वरूप उन्होंने उस समय के निप्प्राण बने हुए जैन-सम्प्रदाय में धर्म का प्राण फूंका । उनका प्रेरणानात दशवकालिक मूत्र के प्रयम अव्ययन की पहली गाथा वनी, जिसे उन्होंने उस समय के सघ जीवन में प्रविष्ट की । उस गाथा का भावार्थ यह है -
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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