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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ मासाहार मे निहित आदिमता को दृष्टिगत रखते हुए भी इसे जाति भेद का एक कारण वना देना सगत नहीं है। आज जो त्यक्तमास लोग है, उनके पूर्वज भी चिरकाल तक मामाद रहे है। उम सुचिरकाल की तुलना मे हमारी-कुछ लोगो की परहेजगारी को बहुत समय नहीं हुआ। मवसे ऊपर हमे इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि शेप समस्त भारतीय समाज से ऐक्य-साधन हमारा लक्ष्य हो, न कि नयी जाति बनाकर सिकुड जाना । सभ्यता और मुरुचि का प्रचार-प्रसार समग्र समाज से .अलग रहकर नही किया जा सकता । यदि आपके सिद्धान्त के पीछे नीति और युक्ति का वल है, तो आपका सिद्धान्त समाहत होगा ही, लेकिन जिसे आप सभ्य और सुरुचिसम्पन्न देखना चाहते है, उम मूल समाज से कटकर यह कैसे होगा। हमारा इतिहास हमे बताता है, कि जब जव समाज के अन्दर किमी उद्देश्य विशेप से कोई उपसमाज या सगठन बनाया गया है-चाहे वह हिन्दुओ की रक्षा के लिए गठित, गुम्ओ के शिप्यो (सिखो) का समाज हो, चाहे वेदो के उद्धार के लिए बनाया गया आर्यसमाज हो, या जीवदया के उद्देश्य से गठित जैन समाज हो , उस उपसमाज ने मानो मूल-समाज के प्रति हमारी श्रद्धा पर डकैती डाल दी है। समस्त देश और समस्त समाज हमारे लिए गौण बन गया है, और देश-समाज की सेवा के लिए बने उपसमाज की सेवा ही हमारा लक्ष्य बन गई है। साधन खुद साध्य बन बैठा । यह प्रवृत्ति देश के हित के विपरीत है। हमारा लक्ष्य एकता होना चाहिए। और अलगाव की प्रवृत्ति को किसी भी आधार पर प्रोत्साहन नही मिलना चाहिए। सभ्यता की दूसरी कसौटी है-शरीरज मल की हम लोग क्या व्यवस्था करते है ? मानव समाज की प्रारम्भिक अवस्था मे जवकि परिवार का गठन नहीं हुआ था, कबीले और समाज नही बने थे, आदमी निस्सग रहता था , तब तक तो शरीरज मल की व्यवस्था करने का कोई प्रश्न ही नहीं था। आदमी जहाँ चाहता मल त्याग करता । प्रकृति अपना काम करती और वातावरण मे विद्यमान कीटाणु जल्दी ही मल को सडाकर मिट्टी में बदल देते। फिर जब परिवार, कवीले और समाज वने, लेकिन यायावरता (घुमक्कडी) चालू रही-तव तक भी मल की व्यवस्था कोई समस्या नही थी। समूहो मे मानव कुछ दिनो तक एक जगह रहता-आसपास से खाद्य जुटाता और वही मलत्याग करता और आगे चला जाता । खाने से अवशिष्ट उच्छिष्ट खाद्य, बोझा ढोने वाले एक-दो पशुओ के शव, और गन्दगी के ढेर पडे-पडे सडा करते, और जल्दी प्रकृति उनको फिर हमवार कर देती। इसके बाद आया एकत्र वास का युग, गृहस्थ और गोष्ठ का युग । यायावरता छूट गयी, आदमी कृपि और बागवानी करने लगा, मकान और खलिहान खडे हो गए। यह जनपदो का प्रारम्भिक रूप था। मकान का प्रयोजन पशु वाँधने, कृपि की उपज रखने, और रात को सोने तक ही मीमित था । कर्मक्षेत्र और मलोत्सर्जन क्षेत्र घर से बाहर ही होते थे । जव वस्ती वडी होने लगी, तब मलोत्सर्जन के २६४
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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