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________________ हिन्दू समाज मे जाति-भेद खाद्य का नोत भी समाप्त न हो, यह वर्तमान मे गहरी चिन्ता का विषय है। जब हमारे सामने भविष्यत् काल की अत्यन्त मानव-सकुल भूमि का चित्र आता है, तो लगता है कि मासाहार का आदी मानव किसी दिन मासपशुओ के समाप्त होने पर फिर से वर्बर प्रागैतिहासिक स्वजातिभक्षण (cannibalism) पर उतर आएगा। इस बर्बरता को टालने का अभी से क्या उपाय है ? सम्यता के प्रवर्तको ने इसके लिए एक नयी जीवन पद्धति की खोज हमारे देश में की थी। "दूसरे के साथ ऐसा व्यवहार करो, जैसा तुम अपने लिए चाहते हो । जो बात तुम्हारे प्रतिकूल पडती है उसका आचरण दूसरो के साथ मत करो-"आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्" धर्म का सार कहिए, नैतिकता का आधार कहिए या सभ्यता कहिए, इस एक बात मे सबका समावेश हो जाता है। वस्तुत सभ्यता की मशाल उन लोगो के हाथो मे है, जिन्होने मासाहार के अलावा प्रोटीन की पूर्ति का प्रबन्ध कर रखा है। भोजन के नैतिक पहलू पर विचार करते समय हमे सामाजिकता और एकता को अक्षुण्ण रखने के प्रकार पर भी ध्यान देना है। ऐसा न हो, कि नैतिकता की झोक मे हमारा समाज, मासाहारी और त्यक्तमास लोगो के रूप मे खण्डित होकर बिखर जाए । देखा गया है कि जो मासाहार नहीं करते, उनमे मासाहारियो की अपेक्षा अपने आपको श्रेष्ठ समझने की प्रवृत्ति हो गयी है। 'मासाहार करने वाले क्रूर है-अधम है-तामसिक है और पापी है, ऐसा मानकर वे यथासम्भव उनसे दूर रहने की चेष्टा करते हैं। मास भोजन से परहेज करने वालो को न लगे-पर यह बात है उद्वेगजनक । जिस दिन मानव ने पशु को गोष्ठबद्ध करके दुहना शुरू किया, वह दिन मानव के इतिहास मे सभ्यता की ओर निस्सन्देह एक बड़ा कदम था , लेकिन गोष्ठबद्ध पशु यूप-बद्ध होने से कभी नहीं रुका। आज भी जो आदमी दुधारू पशु पालते है, चाहे वे मध्य एशिया के घोडी का दूध पीने वाले किरगीज हो, या अरब के ऊंटनी का दूध पीने वाले बद्द हो, या भारत के गाय का दूध पीने वाले सनातनी हिन्द्र हो , सभी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं, कि पशु पालन दर असल पशु के लाभ के लिए नहीं, बल्कि आदमी के लाभ के लिए है। पशु से पशुपालक की हर जगह एक ही मॉग है-"दूध दो, नही तो मास दो।" अत दूध पीकर अपने आपको मासाहारियो की अपेक्षा अधिक नैतिक मानने वालो को ध्यान रखना चाहिए कि पशुवध की जिम्मेदारी दूध पीने वालो पर भी उतनी ही है, जितनी कि मास खाने वालो पर। जिस प्रकार चमडे के जूते पहनने वाला, पशुवध की जिम्मेदारी से, मास न खाने का बहाना करके नहीं बच सकता , उसी प्रकार दूध दही या मक्खन खाने वाला भी पशु परिग्रह और पशुवध की जिम्मेदारी से नहीं बच सकता। मूलत दही खाने वाले और मास खाने वाले एक ही तरह के लोग हैं , दोनो की अवस्थिति जैव भोजन पर है। अत किसी को आहार विशेष से नीच या उंच मानना वैसा ही है, जैसा कि गोभी खाने वाला बैगन खाने वाले को बुरा समझे। हमारे देश मे, जहाँ कि वर्ग भेद का कारण, पूजा करने की भिन्नता, कपडो की भिन्नता, पेशे की भिन्नता या अलग-अलग जगहो मे पैदा होना है , उसी प्रकार एक कारण पशु खाद्य की भिन्नता (जानवर का दूध पीना या मास खाना) भी है । २६३
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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