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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ लघन के दूसरे नैमित्तिक कारण 'नारी की गर्भावस्था' और 'नर को कभी-कभी चोट-फेट लगाना' भी होते ही थे । ये लोग फलो का मौसम समाप्त होने पर लघन के दुख को जानते थे, इसलिए इनको फलसग्रह की युक्ति का आविष्कार करना पड़ा। फल सड न जाएं, इसलिए उन्हें सुखाने की विधि ढी गयी । कीडे या दूसरे बलवान् जन्तु आहार पर डाका न डाले, इसलिए दीवारे उठाकर छत डालने का काम शुरू हुआ। पशु रोज नहीं मिलते, इसलिए उन्हे बन्दी बनाने के लिए वाडे बनाए गए । एक वार मार कर खा जाने की अपेक्षा पालतू पशु का दूध पीना लाभदायक लगा, तो दुधारू पशुओ को छोड कर आदमी ने दूसरे जानवरो को निकाल दिया। घोडा सवारी के लिए और कुत्ता रखवाली के लिए रख लिए गए। कृपि और पशुपालन का ढग आ जाने से आदमी की भोजन की समस्या का समाधान तो हुआ। भोजन से सभ्यता के सम्बन्ध की वात पर विचार करते समय, एक वात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि मनुष्य न तो हिरन, बकरे या गाय की तरह केवल शस्य-भोजी है, और न शेर-चीते, भेडिया या वाज-गिद्ध की तरह केवल मास-भोजी। वल्कि भालू, चहे और कौओ की तरह उभय भोजी है। जैसा भोजन मिल जाए, वैसा भोजन पचाकर आत्मसात् करने की क्षमता का नृवश के विस्तार और प्रसार मे बडा हाथ है । सभ्यता का सवाल आता है, भोजन मे सुरुचि और विवेक के साथ । जिन्हे भोजन कभी-कभी मिलता है, वे ढूंस कर खाएं तो उनके लिए यह स्वाभाविक है , लेकिन जिसने दुष्काल की चिन्ता से उसकी निवृत्ति का उपाय ढूंढ लिया है, वह ठूस कर क्यो खाए | जिस समाज ने पशु को पालना और दुहना नही सीखा, उसकी मास भक्षण की प्रवृत्ति समझ में आने योग्य है, लेकिन जो व्यक्ति या समाज अपनी आदिम अवस्था को पार कर चुका है, वह मांस क्यो खाए । प्रोटीन खाद्य की पूर्ति का, और उभयभक्षी होने का तकाजा भी है, लेकिन फिर सभ्यता का मतलब, आदि प्रवृत्तियो और अद्यतन आवश्यकताओ के समझौते के अलावा और क्या है ? इसके अलावा हमे घ्यान रखना होगा कि यदि मानव वश इस पृथ्वी पर चिरकाल तक वचा रहे तो हमे उसके भविष्य के भोजन की भी चिन्ता करनी होगी। हम केवल अपनी ही चिन्ता करके, उच्छृखलता के व्यवहार से, भावी पीढियो के भोजन के स्रोत को रोक देने की असग्यता नही कर सकते । जिस दर से मानव का वश बढता जा रहा है, उस गति से उसके मासाहार के लिए पशु जुटाने मे तो, स्थल के सारे पशु-पक्षी और तालाबो और झीलो की मछलियां और जल-जन्तु, एक हजार साल से पहले ही नाम शेप हो जाएंगे। समुद्र की मछलियों जरूर अनन्तकाल तक भोजन का साधन बनी रह सकती है, लेकिन इसके लिए सारी दुनियाँ की आवादी को मत्स्याद वनकर ससुद्र के तटो पर आबाद होना पड़ेगा। दूर की चिन्ता करने वाले वैज्ञानिको मे से कोई ऐलगी जाति की काई मे प्रोटीन का प्रतिशत खोज रहा है, और कोई दूसरे ग्रहो मे मानव की बस्तियां वसाकर भूतल की भीडभाड कम करने की बात सोचता है। ये सारी बाते हँसकर उडा देने की ही नहीं है । वस्तुत म्वतरा इतना ही बडा है । आदमी क्या खाने की आदत डाले कि तन्दुरुस्त भी रह सके-दीर्घ जीवन भी प्राप्त कर सके और साथ ही २६२
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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