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________________ हिन्दू समाज में जाति-भेद आचार्य धर्मन्द्रनाथ -+-+-+ - +-+++ +++++ ++ -+ -+-+-+-+-+-+-+ -+ जव मै हिन्दूसमाज मे जातिभेद की प्रस्तावना पर विचार करता हूँ, तो मुझे सबसे पहले इसकी एक ही बुराई का ध्यान आता है, और वह है ऊंचनीच की भावना, जिसकी चरम परिणति हुई हैअपने ही एक वर्ग को अछ्त बनाकर, उसको अपमान और नीचता के बोझ से पीस डालने के रूप मे । और अपमान भी थोडा या थोडे समय का नही-असह्य और पीढी दर पीढी वाला निरन्तर अपमान , जिसने न केवल अपमानित को ही मानवता से वचित किया है, बल्कि अपमान-कर्ता सवर्ण वर्ग को भी मानवता से गिरा दिया है। ___ वैसे तो दुनियाँ की हर कौम को, अपने आपको, दूसरी किसी भी कौम की अपेक्षा अधिक सभ्य मानने का अधिकार है , लेकिन कुछ कसौटियाँ हैं, जिन पर विना कसे यह सभ्यताभिमान अपरीक्षित रहता है। किसी भी जाति की सभ्यता के मुख्य पैमाने दो है-एक पैमाना है, कि वह खाती क्या है ? दूसरा पैमाना है, कि वह अपने शरीर से नि मृत मल की क्या व्यवस्था करती है । जो जाति इन दो कसौटियो पर खरी उतरती है, उसे सभ्य कहा जा सकता है क्योकि इन्ही दो प्रश्नो पर जातियो की सामाजिकता, नैतिकता, आचार, विचार, व्यवहार, सस्कार, कमजोरी या मजबूती को परखा जा सकता है। इनमे पहली कसौटी है भोजन । भोजन जुटाने की प्रक्रिया के इतिहास से मानवता का सारा इतिहास जुडा हुआ है । शुरू मे आदमी शिकार मारकर या मौसमी फल-मूल-कन्द आदि खाकर निर्वाह करता था और शिकार कम पड़ने पर या फल आदि का मौसम खत्म होने पर लघन करता था। , २६१
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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