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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
सनातन सस्कृति को अक्षत और अक्षुण्ण बनाए रखा है । उसके पुण्य और पाप, सुकृत और दुष्कृत, त्याग और तपोमय जीवन का जनमानस पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है और भविष्य में भी पडता रहेगा। माता ही सन्तान की प्रथम गुरु है और इसलिए उसका दायित्व भी मनुष्य से कई गुणा अधिक है। उसके सस्कारो का असर सतति पर पडना स्वाभाविक ही है । वह जीवनोपयोगी विद्याओ की धात्री और सरक्षिका है। उसका जीवन स्वार्थ से ओत प्रोत होने पर भी अनासक्ति प्रधान है । इस्लाम के नवी मोहम्मद साहब ने यथार्थ ही कहा है, स्वर्ग माता के चरणो मे ही खिलता है । अणुबम के युग में भी नारी विश्व को विनाश से बचाने के प्रयत्नो मे सर्वप्रथम है । अपनी प्रजा की रक्षा के लिए वह कितना ही वोझ उठाने के लिए तैयार है। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओ के समाधान में वह किसी से पीछे नही रहना चाहती। वह स्वय अभिशाप लेकर दूसरो को वरदान देना जानती है। वह विश्व-कल्याण को अपना लक्ष्य मान कर अग्रसर हो रही है और दुर्भावना, असहिष्णुता, ईर्ष्या से उद्वेलित मनुष्य की दुर्बलताओ को दूर कर उसको सर्वहित साधन की ओर प्रवृत्त करना चाहती है। यदि वह आज नर को स्वरचित प्रलयकर हिसा के नाश से बचाने में समर्थ होती है, तो यह उसकी समाज को सर्वश्रेष्ठ देन होगी। इस अवसर्पिणी काल में अपनी पवित्र साधना के द्वारा नारी ही इस अनर्थकारी आमन्न सकट से जन को त्राण दे सकती है। अणु शक्ति से उद्धत नर का एक बार फिर मोहिनी बनकर ही वह उद्धार कर सकती है । क्योकि उसके सहचर ने अपने जीवन की किश्ती उद्दाम तूफा के हवाले करदी है और नारी ही अपनी सहृदयता से उसको किनारे लगा सकती हैं।
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