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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
लूट-पाट को जन्म देता । समाज मे उच्छृङ्खलता को रोकने के लिए ही विवाह की पद्धति प्रारम्भ हुई। महाभारत मे एक कहानी है, कि श्वेतकेतु ने अपनी माता को पिता के सन्मुख ही किसी बलिष्ठ युवक द्वारा भगाई जाती हुई देखा । पिता ने क्रुद्ध पुत्र का समाधान प्रचलित प्रथा की स्त्री स्वातत्र्य की दुहाई देकर करना चाहा, किन्तु आदर्शवादी सन्तान को इस उत्तर से सन्तोप नही हुआ। तब ही से विवाह की रस्म शुरू हुई और नारी का जीवन स्वेच्छाचारिता से मुक्त होकर मर्यादित हुआ । वाल्यकाल मे वह पिता के आश्रय मे रहने लगी, यौवन मे पति के और वैधव्य मे पुत्र के । उसकी स्वतन्त्रता, स्वच्छन्दता और स्वेच्छाचारिता सीमित हो गई। उमका कार्य क्षेत्र गृहस्थी हो गई । वह मनुष्य की अन्नपूर्णा बनी । अपने को सुरक्षित पा-समझ, वह सङ्गीत, चित्रकला, कविता आदि का अवकाश के समय अभ्यास करने लगी और वह ललित कलाओ की जन्मदात्री बन गई । उसके सौन्दर्य मे इससे चार चांद लग गए । उसका व्यक्तित्व विकसित हुआ।
वैदिक काल में स्त्री को पुरुप के समान अधिकार प्राप्त थे । वह गुरुकुलो की अधिष्ठात्री देवी थी। विद्यार्थियो का वह पुत्रवर पालन करती थी, उनके सुख-दुखो के प्रति जागरूक रहती थी । शास्त्रो का अध्ययन करती थी, वाद-विवादो मे भाग लेती थी और उसके सहयोग बिना कोई भी यज्ञ-याज सम्पादित नही होते थे । राम को भी राजसूय यज्ञ करने के लिए सीता के अभाव मे सोने की सीता बनवानी पडी थी। वह भौतिक और दैविक सम्पदा की स्वामिनी थी। ऋपियो की तरह मत्री की दृष्टा थी, फिर भी वह मर्यादा की अक्षाश-रेखा का उल्लघन नही करती थी। विदुषी मैत्री और गार्गी के उदाहरण हमको आज भी स्फूर्ति देते है।
पौराणिक काल मे स्त्री का स्थान अति उच्च था। समाज पर उसके पातिव्रत की धाक थी। वह जीवन की महाशक्ति थी । सावित्री उसी बल के आधार पर अपने पति सत्यवान को यमराज के पाश से छुड़ा लाई। सीता नारी मात्र का आदर्श है । असह्य विपत्तियो मे फंसने पर भी राम उसके रोम-रोम मे रम रहे थे और उसके प्रति उसकी निष्ठा अगाध है । राम के कहने से जब उसको अपनी पवित्रता प्रमाणित करने के लिए अग्नि-परीक्षा देनी पडी, तो उसके सत से प्रभावित होकर जलता पर्वत समान काष्ठ समूह भी शीतल हो गया । यही सती प्रथा का सक्षिप्त मे वर्णन कर देना असगत नही होगा । जो हमारे देश मे अग्रेजो के आने के बाद ही बन्द हुई । मध्ययुग मे आततायियो से अपने सतीत्व की रक्षा करने के लिए राजपूतललनाएँ जौहर की आग मे सहर्ष अपने को भस्मीभूत कर देती थी । अपने मृत पति की देह को लेकर सती हो जाना, तो यहाँ साधारण बात थी । जो प्रेम मृत्यु के परे देख सकता था, वह कितना अलौकिक और दिव्य था। ससार के इतिहास मे प्रेम की ऐसी निष्ठा और परम्परा दुर्लभ है । प्रेम के लिए पतङ्गो की तरह मर मिटना अपने आदर्श के लिए सर्वस्व स्वाहा कर देना नारी की समाज को सबसे महत्त्वपूर्ण देन है, जिसका पूर्ण मूल्याकन असभव है । अवे पति से ब्याहे जाने के बाद गाधारी ने उम्र भर अपनी आँखो पर पट्टी बाँध स्वेच्छा से अपने को नेत्रहीन बना लिया ।
मध्य युग मे भी नारी अन्त पुर मे ही राज्य नही करती रही, किन्तु वह राज-काज मे भी भाग
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