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मगध और जैन-सस्कृति
प्रभाव है। जैनागमो 'भाषा अर्धमागधी कही जाती है। अर्धमागधी का अर्थ उस भाषा से है, जो आधे मगध मे बोली जाती थी, अथवा जिसमे मागधी भाषा की आधी प्रवृत्तियाँ पाई जाती थी । हो सकता है कि मगध की भाषा को ही अधिक समुदाय के लिए वोधगम्य बनाने के हेतु, उसमे पडोस के कोशल शूरसेन आदि प्रदेशो के प्रचलित शब्द शामिल कर लिए गए हो, भाषाविदो के अनुसार मागधी भाषा की मुख्यत तीन विशेषताएँ थी -- (१) 'र' का उच्चारण 'ल' होना, (२) तीनो प्रकार के ऊप्म 'शस, व' वर्णों के स्थान पर केवल तालव्य 'श' पाया जाना, (३) अकारान्त कर्ता कारक एक वचन का रूप 'ओ' के स्थान पर 'ए' प्रत्यय होना। इन तीन मुख्य प्रवृत्तियो मे अन्तिम प्रवृत्ति अर्धमागधी मे बहुलता से पाई जाती है और र का ल होना कही कही पाया जाता है। इसकी शेष प्रवृत्तियां शौरसेनी प्राकृत से मिलती है, जिससे अनुमान होता है कि इसका रूपान्तर मगध के पश्चिम देशो मे हुआ होगा । जो हो, जैनो ने पूर्वी भाषा ( मागधी) का कुछ परिवर्तन सस्कार तो अवश्य किया पर बहुत हद तक वे उसे ही पकडे रहे। उनके आगम जिस अर्धमागधी भाषा मे है, उसमे बीद्धागमो की भाषा पालि से मगध की भाषा के अधिक तत्त्व पाए जाते है। जैन, प्राकृतो के 'एगो दुगो' आदि अनेक शब्द मगध मे आज भी बोले जाते है । वर्तमान जैन आगमो मे अर्धमागधी भाषा के अनेक स्तर परिलक्षित होते है । उनमे आचाराग आदि कुछ तो प्राचीनतम स्तर वाले है पर अधिकाश ग्रन्थो मे मध्ययुगीन आर्य-भाषा के दूसरे स्तर की प्रवृत्तियाँ -- समीकरण, सरलीकरण एव वर्ण लोप आदि प्रवेश कर गई है । सम्भवत ये उन आगमो की मौखिक परम्परा के कारण हो कालक्रम से घुस गई हैं।
मगध मे चौदह वर्ष व्यापी दुर्भिक्ष की घटना जैनधर्म के इतिहास की वह भयकर घटना थी, जिसने सघ भेद के साथ-साथ जैन धर्म के पैर मगध की भूमि पर कमजोर कर दिए। वह धीरे-धीरे इस भूमि के जन मानस से विस्मृत-सा होने लगा और अपने विस्तार का क्षेत्र पश्चिम ओर वाराणसी मथुरा की तरफ, पूर्व मे बगाल दक्षिण पूर्व मे कलिङ्ग तथा दक्षिण भारत में ढूंढने लगा । पर मगध के वक्षस्थल पर जैन इतिहास की जो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटी थी, उससे वह जैनो की पुण्य भूमि तो वन चुका था । आज भी राजगृह की पच पहाडियाँ, नालन्दा, पावा, गुणावा और पाटलिपुत्र एक साथ जैनो के ये पाँच तीर्थस्थान इसी मगध की पुण्य भूमि है और इसके पडोसी प्रदेश हजारीबाग मे सम्मेद शिखर, कोलुआ पहाड तथा मानभूम जिले के अनेक ध्वसावशेप जैनधर्म के गौरव को उद्घोषित कर रहे हैं ।
उपसंहार
मौर्यवंश के बाद मगध पर शुद्ध और कण्ववश का राज्य हुआ । इन वशो के नरेश ब्राह्मण-धर्म के अनुयायी एव पोषक थे। इनके समय मे मगध हतप्रभ था और विदेशियो को भारत मे राज्य स्थापना करने का मौका मिल गया। पर मगध की श्रमण संस्कृति का प्रभाव व्यथं नही गया। उसने अन्य सस्कृतियो से समन्वय कर उनके रूप निखारने मे सहयोग दिया। नवीन ब्राह्मण धर्म को उसने देवीदेवताओ की भक्ति, उपासना, मूर्तिपूजा एव जीवदया आदि बातें प्रदान की और वैदिक धर्म के पुनरुद्धार काल मे वह शक्तिहीन एव अवनत हो गया और कुछ अश मे उनमे समा गया ।
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