SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-प्रन्थ नन्दो के बाद भारत की विदेशी आक्रमणो से रक्षा करने वाला, सारे भारत को एक छत्र के नीचे लाने घाला सम्राट चन्द्रगुप्त निर्विवाद रूप से जैन था । बौद्ध अनुश्रुति में उसे मोरिय नामक वात्य क्षत्रिय जाति का युवक बताया है। जैन ग्रन्थ 'तिलोय पण्णत्ति' मे उसे उन सम्राटो मे अन्तिम कहा गया है, जिन्होने जिन-दीक्षा लेकर अन्तिम जीवन जैन मुनि के रूप मे व्यतीत किया था। वह श्रुत-केवली भद्रबाहु की परम्परा का अनुयायी था और ई०पू०२६० के लगभग दक्षिण भारत मे कर्नाटक देश के,श्रवण वेलगोला स्थान मे उसने समाधि मरण पूर्वक देह त्याग किया था । आचार्य हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व के अनुसार सम्राट चन्द्रगुप्त का महाराजनीतिज्ञ मत्री चाणक्य भी अपने जीवन के शेष दिनो मे जैन धर्म की शरण आया था। उसके अन्तिम दिनो का वर्णन इसीलिए हमे जैन शास्त्रो के अतिरिक्त कही नहीं मिलता। पागमो का संग्रह जैनागमो का सर्वप्रथम सकलन इसी मगध देश की राजधानी पाटलिपुत्र में आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व मे हुआ था। उस सकलन की एक रोचक कहानी है। भगवान महावीर का जो उपदेश इस मगध की धरा पर हुआ था, वह उनके शिष्यो द्वारा १२ अग और १४ पूर्वो मै विभक्त किया गया था, जो श्रुत परम्परा से चलकर शिष्य-प्रशिप्यो द्वारा कालान्तर मे विस्मृत होने लगा था। यह बात नन्दमौर्य साम्राज्य के सक्रमण काल की है । इस समय तक बौद्धो ने अपने आगमो को राजगृह और वैशाली की दो सगीतियो द्वारा बहुत कुछ व्यवस्थित कर लिया था। पर जैनो की ओर से कोई सामूहिक प्रयत्न नही हुआ था। नन्द-मौर्य राज्यतत्र के सक्रमण काल मे जैन संघ के प्रमुख आचार्य भद्रबाहु थे। हेमचन्द्राचार्य के परिशिष्ट-पर्व के एक उल्लेख से ज्ञात होता है कि उस समय मगध मे बारह वर्ष च्यापी भयकर दुर्भिक्ष पडा था। उस दुष्काल मे जब साधुओ को भिक्षा मिलना कठिन हो गया था, तब साधु लोग निर्वाह के लिए समुद्र तट की ओर चले गए । भद्रबाहु स्वामी नेपाल की ओर चले गए और उन्होने बारह वर्ष के महाप्राण नामक ध्यान की आराधना की थी। दिसम्बर अनुश्रुति के अनुसार भद्रबाहु दक्षिण की ओर अपने सघ सहित चले गए थे। मगध मे कुछ जैन मुनि आचार्य स्थूलभद्र की प्रमुखता मे रह गए थे । भीषण दुर्भिक्ष के कारण मुनि मघ को अनेक विपत्तियां झेलनी पड़ी । अन्त मे आगमज्ञान की सुरक्षा के हेतु आ०स्थूलभद्र के नेतृत्व में एक परिपद् का सगठन हुआ जिसमे अवशिष्ट आगमो का सकलन हुआ । भद्रवाहु के अनुगामी मुनि गण जब मगध लौटे, तो उन्होने सकलित आगमो की प्रामाणिकता पर सन्देह प्रकट किया और तत्कालीन साधु-सघ जो श्वेत वस्त्र का आग्रह करने लगा था, को मान्यता प्रदान नही की। इस तरह इस मगध की धरा पर ही दिगम्बर और श्वेताम्बर नाम से जैन सघ के स्पष्ट दो भेद हो गए। यहाँ जो आगम सग्रह किया गया, उसे दो भागो मे बाँटा गया-एक तो वे जो महावीर से पूर्व श्रमण-परम्परा मे प्रचलित थे, इसलिए उन्हे पूर्व, कहा गया और महावीर के उपदेश को '१२ अग' नाम से सगृहीत किया गया। पागमो की भाषा मगध देश की भाषा मागधी या मगही कहलाती है। इसका जैन आगमो की भाषा पर खासा २५४
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy