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मगध और जैन-सस्कृति
अनेक धनी जैन रहते थे। मगध के कई प्रभावक जैन श्रावक और श्राविकाओ का नाम बौद्ध ग्रन्थो मे मिलता है, जैसे राजगृह का सचक, नालन्दा का उपालि गृहपति आदि ।
भग० महावीर के समय राजगृह अनेक विद्वानो और प्रसिद्ध वादियो का केन्द्र था । उनके प्रथम उपदेश को समझने और धारण करने वाला प्रथम शिष्य इन्द्रभूति, जो गौतम गणधर नाम से प्रसिद्ध हुआ, इसी स्थान का एक विशिष्ट ब्राह्मण था, भगवान् के ग्यारह गणधरो मे से छह तो इसी प्रदेश के थे। कहते है कि राजगृह से भगवान् महावीर का जन्म-जन्मातरो से सम्बन्ध था। और पवित्र पाँच पर्वतो से घिरा हुआ यह नगर अनेक महापुरुषो की लीला-भूमि तथा मुक्ति-प्राप्ति का स्थान रहा है। केवल ज्ञान प्राप्ति के समान ही भग० महावीर को निर्वाण पद देने का सौभाग्य मगध की पावन भूमि को ही प्राप्त है। ईसा पूर्व ५२७ मे 'पावा' से वर्धमान मोक्ष प्राप्त हुए थे। पटना के कमलदह (गुलजार बाग) नामक स्थान से महाशीलवान् सुदर्शन सेठ ने समाधि पाई थी।
महाभारत और पुराणो से विदित होता है, कि प्रागैतिहासिक-युग मे मगध के प्रतापी नरेश जरासन्ध ने समस्त भारत पर राज्य स्थापित किया था। वह भग० नेमिनाथ का युग था । पुन ईसा की छठवी शताब्दी पूर्व श्रेणिक बिम्बसार के नेतृत्व मे मगध ने ऐसे साम्राज्यवाद की नीव डाली जो पीछे जैन सम्राट चन्द्रगुप्त और उसके उत्तराधिकारियो के सरक्षकत्व मे सारे भारत पर छा गया था। जैन शास्त्रो के अनुसार श्रेणिक भग० महावीर का अनुयायी हो गया था। उसकी रानी चेलना और उसके अनेक पुत्र जैन-मुनियो के परम भक्त थे। जैनागमो का कुणिक और श्रेणिक का उत्तराधिकारी-अजातशत्रु जन धर्मानुयायी था। उसका बेटा उदायिभद्द अपने पिता के समान ही पक्का जैन था। यही तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियो को देखते हुए अपनी राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र ले गया था। पाटलिपुत्र को प्रकर्ष देने का श्रेय उदायि को ही है । जैनागम ग्रन्थ आवश्यक सूत्र के अनुसार उसने नई राजधानी के मध्य एक जैन चैत्य गृह बनवाया था और अष्टमी चर्तुदशी को प्रोषध का पालन करता था। उदायि ने अनेको बार उज्जैन के राजा को पराजित किया था।
उदायि के बाद मगध का साम्राज्य अनेक राजनीतिक एव धार्मिक प्रतिद्वद्विताओ का शिकार बन गया, पर जन-हृदय पर जैन धर्म के प्रभाव की धारा कम ही क्षीण हो सकी। जैन ग्रन्थो मे उदायि के बाद और नव नन्दो के आविर्भाव के बीच के राजाओ का नाम नही मिलता । नन्द राजा और उनके मत्री गण भी जैन थे। उनका प्रथम मत्री कल्पक था, जिसकी सहायता से नन्दो ने क्षत्रिय राजाओ का मान-मर्दन किया था। नव मे नन्द का मत्री शकटाल भी जैन था, जिसके दो पुत्र थे-स्थूलभद्र और श्रीयक । स्थूलभद्र तो जैन साधु हो गया, पर श्रीयक ने मत्रि पद ग्रहण किया । नन्द राजा जैनधर्मानुयायी थे, यह बात मुद्राराक्षस नाटक से भी मालूम होती है। नाटक की सामाजिक पृष्ठ भूमि मे जैन प्रभाव स्पष्ट काम कर रहा है। नन्दो के जैन होने के अकाट्य प्रमाण सम्राट खारवेल का शिलालेख है, जिसमे उल्लेख है कि नन्द राजा कलिंग देश से भगवान आदिनाथ की प्रतिमा अपनी विजय के चिह्न स्वरूप मगध ले आया था। नन्दो के समय मगध का साम्राज्य चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया था।
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