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________________ सस्कृति का स्वरूप नये और पुराने के संघर्ष में इस प्रकार का सुलझा हुआ और साहसपूर्ण दृष्टिकोण रखना आवश्यक है । इससे प्रगति का मार्ग खुला रहता है। अन्यथा भूतकाल कठ मे पडे खटखटे की तरह बार-बार टकरा कर हमारी हड्डियो को तोडता रहता है। भारतवर्ष जैसे देश के लिए यह और भी आवश्यक है कि वह भूतकाल की जडपूजा मे फैसकर उसी को सस्कृति का अग न मानने लगे। भूतकाल की रूढियो से ऊपर उठकर उसके नित्य अर्थ को ग्रहण करना चाहिए । आत्मा को प्रकाश से भर देने वाली उसकी स्फूर्ति और प्रेरणा स्वीकार करके आगे बढाना चाहिए । जब कर्म की सिद्धि पर मनुष्य का ध्यान जाता है, तब वह अनेक दोषो से बच जाता है । जब कर्म से भयभीत व्यक्ति केवल विचारो की उलझन मे फंस जाता है, तब वह जीवन की किसी नयी पद्धति या सस्कृति को जन्म नही दे पाता। अतएव आवश्यक है कि पूर्वकालीन सस्कृति के जो निर्माणकारी तत्त्व है, उन्हे लेकर हम कर्म मे लगे और नयी वस्तु का निर्माण करे। इसी प्रकार भूतकाल वर्तमान का खाद बनकर भविष्य के लिए विशेष उपयोगी बनता है। भविष्य का विरोध करके पदे-पदे उससे जूझने मे और उसकी गति कुठित करने मे भूतकाल का जब उपयोग किया जाता है, तब नए और पुराने के बीच एक खायी बन जाती है और समाज मे दो प्रकार की विचारधाराएं फैलकर सघर्प को जन्म देती है। हमे अपने भूतकालीन साहित्य मे आत्म-त्याग और मानव सेवा का आदर्श ग्रहण करना होगा। अपनी कला मे से अध्यात्म-भावो की प्रतिष्ठा और सौन्दर्य-विधान के अनेक रूपो और अभिप्रायो को पुन स्वीकार करना होगा। अपने दार्शनिक विचारो मे से उस दृष्टिकोण को अपनाना होगा, जो समन्वय, मेल-जोल, समवाय और सप्रीति के जीवन-मत्र की शिक्षा देता है, जो विश्व के भावी सम्बन्धो का एक मात्र नियामक दृष्टिकोण कहा जा सकता है। अपने उच्चाशय वाले धार्मिक सिद्धान्तो को मथकर उनका सार ग्रहण करना होगा। धर्म का अर्थ संप्रदाय या मत विशेष का आग्रह नही है । रूढियाँ रुचि भेद से भिन्न होती है और होती रहेगी । धर्म का मथा हुआ सार है, प्रयत्नपूर्वक अपने आपको ऊँचा बनाना । जीवन को उठाने वाले जो नियम है, वे जब आत्मा मे बसने लगते है, तभी धर्म का सच्चा आरम्भ मानना चाहिए । साहित्य, कला, दर्शन और धर्म से जो मूल्यवान सामग्री हमे मिल सकती है, उसे नये जीवन के लिए ग्रहण करना यही सास्कृतिक कार्य की उचित दिशा और सच्ची उपयोगिता है। २४६
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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