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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ पूर्व और नवीन का मेल पूर्व और नूतन का जहाँ मेल होता है, वही उच्च संस्कृति की उपजाऊ भूमि है। ऋग्वेद के पहले ही सूक्त मे कहा गया है कि नये और पुराने ऋपि दोनो ही ज्ञान रूपी अग्नि की उपासना करते है। यही अमर सत्य है। कालिदास ने गुप्तकाल की स्वर्णयुगीय भावना को प्रकट करते हुए लिखा है कि जो पुराना है, वह केवल इसी कारण अच्छा नहीं माना जा सकता, और जो नया है उसका भी इसीलिए तिरस्कार करना उचित नही । बुद्धिमान दोनो को कसौटी पर कसकर किसी एक को अपनाते है। जो मूद है, उनके पास घर की बुद्धि का टोटा होने के कारण वे दूसरो के भुलावे मे आ जाते है। गुप्त-युग के ही दूसरे महान् विद्वान् श्री सिद्धसेन दिवाकर ने कुछ इसी प्रकार के उद्गार प्रकट किए थे-"जो पुरातन काल था, वह मर चुका । वह दूसरो का था, आज का जन यदि उमको पकडकर बैठेगा, तो वह भी पुरातन की तरह ही मृत हो जाएगा। पुराने समय के जो विचार है, वे तो अनेक प्रकार के है। कौन ऐसा है, जो भली प्रकार उनकी परीक्षा किए बिना अपने मन को उधर जाने देगा।" जनोऽय मन्यस्य मृतः पुरातन पुगतनरेव समो भविष्यति । पुरातनेष्वित्यनवस्थितेषु कः पुरातनोक्तान्यपरीक्ष्य रोचयेत् ।। अथवा, "जो स्वय विचार करने मे आलसी है, वह किसी निश्चय पर नहीं पहुंच पाता। जिसके भन मे सही निश्चय करने की बुद्धि है, उसी के विचार प्रसन्न और साफ-सुथरे रहते है । जो यह सोचता है कि पहले आचार्य और धर्मगुरु जो कह गए सब सच्चा है, उनकी सब बात सफल है और मेरी बुद्धि या विचार शक्ति टुटपुजिया है, ऐसा बाबा-वाक्य प्रमाण के ढग पर सोचने वाला मनुष्य केवल आत्म-हनन का मार्ग अपनाता है" विनिश्चय नैति यया यथालसस्तथा तथा निश्चितवान् प्रसीदति । अवन्ध्यवाक्या गुरवोऽहमल्पीरिति व्यवस्यन स्ववषाय धावति ॥ "मनुष्य के चरित्र मनुष्यो के कारण स्वय मनुष्यो द्वारा ही निश्चित किए गए थे। यदि कोई बुद्धि का आलसी या विचारो का दरिद्री बनकर हाथ मे पतवार लेता है, तो वह कभी उन चरित्रो का पार नही पा सकता जो अथाह है और जिनका अन्त नही। जिस प्रकार हम अपने मत को पक्का समझते है, वैसे ही दूसरे का मत भी तो सकता है। दोनो मे से किसकी बात कही जाए? इसलिए दुराग्रह को छोडकर परीक्षा की कसौटी पर प्रत्येक वस्तु को कसकर देखना चाहिए।" गुप्तकालीन सस्कृति के ये गूंजते हुए स्वर प्रगति, उत्साह, नवीन पथ सशोधन और भार-मुक्त मन की सूचना देते है। राष्ट्र के अर्वाचीन जीवन में भी इसी प्रकार का दृष्टिकोण हमे ग्रहण करना आवश्यक है । कुषाण-युग के आरम्भ की मानसिक स्थिति का परिचय देते हुए महाकवि अश्वघोष ने तो यहाँ तक कहा था कि राजा और ऋषियो के उन आदर्श चरित्रो को जिन्हे पिता अपने जीवन मे पूरा नहीं कर सके थे, उनके पुत्रो ने कर दिखाया राजाम् ऋषीणा चरिताति तानि कृतानि पुत्ररकृतानि पूर्वे । ર૪૬
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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