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सस्कृति का स्वरूप
ससार मे देश भेद से अनेक प्रकार के मनुष्य है। उनकी सस्कृतियां भी अनेक है। यहाँ नानात्व अनिवार्य है, वह मानवीय जीवन का झमट नही, उसकी सजावट है। किन्तु देश और काल की सीमा से बंधे हुए हमारा घनिष्ठ परिचय या सम्बन्ध किसी एक सस्कृति से ही सम्भव है। वही हमारी आत्मा और मन मे रमी हुई होती है और उनका सस्कार करती है। यो तो ससार मे अनेक स्त्रियाँ और पुरुष है, पर एक जन्म मे जो हमारे माता-पिता बनते है, उन्ही के गुण हम मे आते हैं और उन्हे ही हम अपनाते है। ऐसे ही सस्कृति का सम्बन्ध है, वह सच्चे अर्थों में हमारी धात्री होती है। इस दृष्टि से सस्कृति हमारे मन का मन, प्राणो का प्राण और शरीर का शरीर होती है । इसका यह अर्थ नही कि हम अपने विचारो को किसी प्रकार सकुचित कर लेते है। मच तो यह है कि जितना अधिक हम एक सस्कृति के मर्म को अपनाते हैं, उतने ही ऊँचे उठकर हमारा व्यक्तित्व ससार के दूसरे मनुप्यो, धर्मों, विचारधाराओ और सस्कृतियो से मिलने और उन्हें जानने के लिए समर्थ और अभिलापी बनता है । अपने केन्द्र की उन्नति वाह्य विकास की नीव है। कहते है घर खीर तो बाहर भी खीर, घर मे एकादशी तो वाहर भी सब सूना । एक सस्कृति मे जब हमारी निष्ठा पक्की होती है, तो हमारे मन की परिधि विस्तृत हो जाती है, हमारी उदारता का भण्डार भर जाता है। संस्कृति जीवन के लिए परम आवश्यक है। राजनीति की साधना उमका केवल एक अग है । सस्कृति, राजनीति और अर्थशास्त्र दोनो को अपने मे पचाकर इन दोनो से विस्तृत मानव मन को जन्म देती है। राजनीति मे स्थायी रक्त सचार केवल सस्कृति के प्रचार, ज्ञान और साधना से सम्भव है। सस्कृति जीवन के वृक्ष का सवर्धन करने वाला रस है । राजनीति के क्षेत्र मे तो उसके इने-गिने पत्ते ही देखने मे आते हैं । अथवा यो कहे कि राजनीति केवल पथ की साधना है, मस्कृति उस पथ का साध्य है ।
जागरूकता की आवश्यकता
भारतीय राष्ट्र अब स्वतन्त्र हुआ है। इसका अर्थ यह है कि हमे अपनी इच्छा के अनुसार अपना जीवन ढालने का अवसर प्राप्त हुआ है। जीवन का जो नवीन रूप हमे प्राप्त होगा, वह अकस्मात् अपने आप आ गिरने वाला नहीं है। उसके लिए जानबूझ कर निश्चित विधि से हमे प्रयत्न करना होगा। राष्ट्र सवर्धन का सबसे प्रबल कार्य संस्कृति की साधना है। उसके लिए बुद्धिपूर्वक प्रयत्ल करना आवश्यक है। देश के प्रत्येक भाग में इस प्रकार के प्रयत्न आवश्यक है। इस देश की संस्कृति की धारा अति प्राचीन काल से बहती आई है। हम उसका सम्मान करते है, किन्तु उसके प्राणवत तत्त्व को अपनाकर ही हम आगे बढ सकते है । उसका जो जड भाग है, उस गुरुतर वोझ को यदि हम ढोना चाहे तो हमारी गति मे अडचन उत्पन्न होगी। निरन्तर गति मानव जीवन का वरदान है । व्यक्ति हो या राष्ट्र, जो एक पडाव पर टिक रहता है, उसका जीवन ढलने लगता है। इसलिए 'चरैवेति चरैवेति' की धुन जब तक राष्ट्र के रथ-चक्रो में गूंजती रहती है तभी तक प्रगति और उन्नति होती है, अन्यथा प्रकाश और प्राण वायु के कपाट बन्द हो जाते है और जीवन ध जाता है। हमे जागरूक रहना चाहिए, ऐसा न हो कि हमारा मन परकोटा खीचकर आत्म-रक्षा की साध करने लगे।
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