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________________ जन दर्शन की अपूर्व देन स्याद्वाद नित्य है, तो दूसरी दृष्टि अनित्य भी । एक व्यक्ति एक दृष्टि से पिता है, तो दूसरी दृष्टि से पुत्र भी । इसमे विरोध कहाँ । जैनी ही नही बौद्ध भी चित्रज्ञान मे विरोध नहीं मानते। जब एक ही ज्ञान मे चित्रवर्ण का प्रतिभास हो सकता है और उस ज्ञान मे विरोध नहीं होता, तो एक ही पदार्थ मे दो विरोधी धर्मो की सत्ता स्वीकार करने मे क्या आपत्ति हो सकती है । एक ही वस्त्र श्याम और श्वेत हो सकता है, एक ही वस्त्र सकोच और विकासशील हो सकता है, तो एक पदार्थ मे नित्यता और अनित्यता, एकता और अनेकता की सत्ता विरोधी कैसे हो सकती है? कल्पना कीजिए-एक वस्त्र की दुकान पर ग्राहक पहुंचा। उसने दुकानदार से प्रश्न किया, यह वस्त्र ऊन का है न! दुकानदारदार ने उत्तर दिया हाँ, यह ऊन का है । दूसरे ग्राहक ने पुन उसी वस्त्र के सम्बन्ध मे प्रश्न किया "क्या यह वस्त्र रेशम का है। दुकानदार ने उत्तर दिया-नही यह रेशम का नहीं है।" "यहा" यह ऊन का है यह कथन जितना सत्य है, उतना ही 'रेशम का नहीं है, यह भी सत्य है। एक ही वस्त्र के सम्बन्ध मे ऊन की अपेक्षा "सत्" और रेशम की अपेक्षा से 'असत्' किसको विरुद्ध प्रतीत होता है। एक पैन के सम्बन्ध मे विविध जिज्ञासाओ का उत्तर विविध रूप से दिया जा सकता है १. यह पैन प्लास्टिक का है २ यह पैन पारकर कम्पनी का है ३ यह पैन महेन्द्र का है ४. यह पैन इग्लैण्ड का बना हुआ है ५ यह पैन पच्चीस रुपये का है ६ यह पन १९६१ का बना हुमा है ७ यह पैन लिखने का है हां, तो देखिए ये सभी प्रश्न एक ही पैन के सम्बन्ध में है और उत्तर भी। भिन्न-भिन्न अपेक्षा से पूछे गए प्रश्नो का उत्तर भिन्न-भिन्न दृष्टि से दिए गए है । पर उनमे परस्पर कोई विरोध नहीं है। एक भव्य भवन के विभिन्न कोणो से चित्र लिए जाए और उसके पश्चात् उन सभी पोजो को एक साथ रखकर देखा जाए, तो परस्पर विभेद-प्रतीत होगा। कोणो के परिवर्तन होने से प्रत्येक पोजो मे भवन का सन्निकटवर्ती दृश्य भी परिवर्तित हो जाएगा । अवलोकन करने वाले सहज ही भ्रम मे पड़ सकते है, कि ये सभी पोज एक ही भवन के है या अन्य-अन्य भवनो के। पर सत्य यह है, कि सभी पोजो का समन्वित रूप ही उस भवन का सही रूप है । एतदर्थ ही अनेकान्तवाद वस्तु को प्रत्येक कोणो से अवलोकनार्थ प्रेरणा देता है। जैसे विविध कोणो से सग्रहण किए गए दृश्यो की एकत्र अवस्थिति से भवन की स्थिति में किसी भी प्रकार भी अव्यवस्था नही होती, तो फिर विभिन्न विरोधी स्वभावो के अस्तित्व से वस्तु मै वह किस प्रकार सभव है ? २४३
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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