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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-प्रन्य
समय है, सभी नय अपनी सीमा मे सत्य हैं, पर जब वे दूसरे को असत्य घोषित करते है, तब मिथ्या वन जाते है, किन्तु अनेकान्तवादी नयो के मध्य सम्यक् और मिथ्या की विभेद रेखा नही खीचता । उपाध्याय यशोविजय जी ने लिखा, "सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेप नही करता, वह सम्पूर्ण नयरूप दर्शनो को इस प्रकार वात्सल्य से देखता है, जैसे कोई पिता अपने प्यारे पुत्रो को देख रहा हो ।
जैन दर्शन का यह वज्र आघोप है, कि प्रत्येक चिन्तन सापेक्ष्य होना चाहिए । अनेकान्तवादी सम्यग् दृष्टि है और एकान्तवादी मिथ्या दृष्टि है। जिन समस्याओं को एकान्तवादी वर्षों तक नही सुलझा मकता, उन समस्याओ को अनेकान्तवादी एक क्षण मे सुलझा देता है । वह मानव को सर्वतत्र स्वतंत्र चिन्तन प्रदान करता है । "ही" की कैद से मुक्तकर " भी" के नन्दन वन मे विहार कराता है। विचार सहिष्णु बनाता है । एतदर्थं ही आचार्य अमृतचन्द्र ने मम्पूर्ण विरोधो का गमन करने वाले अनेकान्तवाद को नमस्कार किया है ।'
स्याद्वाद के सही अर्थ की उपेक्षा कर भारत के महान् दार्शनिक विज्ञो ने उस पर मिथ्या आरोप लगाए हैं। बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने स्याद्वाद को पागलो का प्रलाप कहा और जैनो को निर्लज्ज बताया । " शान्तरक्षित ने भी लिखा "स्याद्वाद जो कि सत् और असत् एक और अनेक, भेद और अभेद सामान्य और विशेप जैसे परस्पर विरोधी तत्त्वो को मिलाता है, पागल व्यक्ति की बोखलाहट है" इसी तरह आचार्य शकर ने भी स्याद्वा पर पागलगन का आरोप लगाते हुए लिखा " एक ही श्वास शीत और उष्ण नही हो सकता । भेद और अभेद, नित्यता और अनित्यता, यथार्थता और अयथार्थता, सत् और असत्, अधकार और प्रकाश की तरह की एक ही काल मे एक ही वस्तु मे नही रह सकते " ४ डा० राधाकृष्णन ने उसे अर्ध सत्य कहकर त्याज्य बताया। स्याद्वाद का उपहास करते हुए महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने लिखा "दही, दही भी है और ऊँट भी, तो दही खाने के समय ऊँट खाने को क्यो नही दोडते" इस प्रकार अनेक आरोप स्याद्वाद पर लगाए गए हैं, पर चिन्तन करने पर वे सभी निराधार प्रतीत होते है ।
प्रश्न है, कि एक ही वस्तु मे नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व आदि परस्पर विरोधी धर्म कैसे रह सकते है ? उत्तर मे नम्र निवेदन है, कि स्याद्वाद यह नही कहता कि जो नित्यता है वही अनित्यता है अथवा जो एकता है, वही अनेकता है । किन्तु स्याद्वाद का कहना है, कि एक दृष्टि से एक पदार्थ
१ परमागमस्य वीज निषिष्य जात्यघसिन्धुरनिघानम् । सकलनय विलसितानां विरोधमथन नमाम्यनेकान्तम् ॥
२ प्रमाण वार्तिक १, १८२ - १८५
3 तत्त्व संग्रह ३११ - ३२७
४ शांकर भाग्य रा२/३३ ५ दर्शन दिग्दर्शन
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- पुरुषार्थ - सिध्युपाय २
- राहुल सांकृत्यायन