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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्य मूर्ति और मुंहपत्ति के प्रश्न ने हमारे टुकड़े कर दिए । जैन-दर्शन आत्मा का पुजारी है। मूर्ति और मुंहपत्ति तो केवल माध्यम है। यदि हम चैतन्य पूजा का दावा करते है और मूर्ति का तिरस्कार करते है, तो प्रश्न सामने आएगा कि मूर्ति जड है, तो मुंहपत्ति कहाँ चैतन्य है ? तो फिर क्या मुंहपत्ति देखत ही हम झुक पडते है और उसके हटते ही हमारा मारा प्रेम घृणा में बदल जाता है। क्या यह जड-पूजा नहीं हुई? हमारे चैतन्य के उपासक यह मानते है कि मुंहपत्ति के अभाव में मम्यग्दर्शन, नान, और चारित्र सभव नही है । या मूर्ति पूजा के अभाव में केवल जान रुक जाएगा ? जब हम सिद्धान्तत यह स्वीकार कर लेते है कि अन्य तीर्य और अन्य लिंग में भी मुक्ति सभव है, तो फिर इन प्रश्नों को लेकर मघर्ष करना कहाँ की बुद्धिमानी है। इसी प्रकार सवस्त्र और निर्वस्त्र के संघर्ष भी तथ्यहीन है। मुक्ति तो अनासक्ति मे है, फिर आमक्ति वस्त्रो मे हो या शरीर मे, सर्वत्र वाधक ही रहेगी। फिर वस्त्र से ही भगडा क्यो ? ऐसे ही थोथे सघर्ष है, दया और दान के प्रश्न के । निश्चय और व्यवहार के तत्त्व को ठीक ढग से न समझने के कारण ही ये झगडे हैं। वास्तव में मूर्ति या मुहपत्ति सवस्त्रता और निर्वस्त्रता मोक्ष प्राप्ति में उतने वाधक नहीं है, जितने कि इनके पीछे रहे हुए वैयक्तिक अहवाद । इस अहवाद मे पथवाद का जन्म होता है और वही सघों की जड है। उस जड़ को तभी उखेडा जा सकता है, जबकि अनेकान्त को सही रूप मे समझा जाए। विरोध में अविरोध देखने की दृष्टि ही तो जैन-दर्शन की मौलिक देन है। क्योकि उसका जन्म ही विरुद्ध दृष्टियो के बीच हुआ है। आचार्य सिद्धसेन के शब्दो मे कहे तो जैन दर्शन मिथ्या दर्शनी का विलक्षण समूह है।' यदि अनेकान्त को दर्शन के बीहड वन से निकाल कर जीवन की समतल भूमि पर ले आएं, तो हम जीवन का सही दर्शन पा सकते हैं। जिसमे सघर्ष नही, समन्वय के दर्शन होगे । जब हम विभेदों ने अभद की दृष्टि पाएंगे, तभी जीवन के यथार्थ मूल्यो को मही रूप में पहचान सकेंगे। 16660000 0999999 29999999 099999999 १ भई मिच्छादसण समूह मइयस्स अमय-सारस्स । जिण-चयणस्स भगबमओ सविग्गा सुहाहिगम्मस्स ।। -सन्मति प्रकरण ३-६६ २२
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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