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जीवन मे अनेकान्त
दोनो दृष्टि अपनी अभिप्रेत विचारधारा को ही सही मानती है, किन्तु विश्व व्यवस्था उभय रूप मे जीती है । क्योकि हम देखते है कि एक युवक अपने बचपन की भूलो का स्मरण करता है, साय ही भावी जीवन को सुखमय बनाने के लिए प्रयत्नशील रहता है। अत हमे जीवन की वदलती हुई छाया में भी एक सूत्रता की स्पष्ट अनुभूति होती है। यही द्रव्यास्तिकनय की अभेदगामिनी दृष्टि सफल है। दूसरी ओर यौवन और वचपन के बीच की स्पष्ट भेद प्रतीति भी हमें होती है। क्योंकि नए खून की नई क्रान्ति करने की तडफ दोनो के बीच एक विभाजक रेखा भी खीचती है। यहीं पर्याय दृष्टि भी सफल है। दर्शन के दिवाकर आचार्य सिद्धसेन के शब्दों में कहूँ, तो युवक क्या है, वह दोनो का मिला जुला रूप है। वह बचपन से एक दम पृथक् भी नहीं है, क्योंकि वह वचपन की मुकामल वृत्तियो मे जीता है, नाय ही हम यह भी देखते है कि वह उसके साथ एकदम सम्बद्ध भी नहीं है, क्योंकि वह वाला नहीं है।'
जीवन की इसी भेदाभेद-गामिनी दृष्टि के द्वारा ही हम अखिल विश्व के पदार्थों की सत्य स्थिति के दर्शन कर सकते है। आत्मा ही क्यो, विश्व के समस्त पदार्थ-मार्य एक स्वभाव वाले है। पर्यायास्तिक दृष्टि से उनमे उत्त्पत्ति और विगम भी होता है, पर द्रव्यास्तिक दृष्टि से वे सदा अवस्थित ही है ।
___यह अपेक्षावाद विचार जगत् के सहन-सहन नघो को समाप्त करता है । बड़े-बड़े दार्शनिक जिस जीवन और जगत की समस्या को लेकर वर्षों तक मघर्ष करते रहे, अनेकान्तवाद उस जटिल समस्या का एक मिनिट मे समाधान खोज लेता है।
एक प्रश्न यहाँ विचार मांगता है कि जो अनेकान्तवाद दर्शन की उलझन भरी गुत्थियो को सुलझाने की क्षमता रखता है और हम दावा करते है कि वह जैन दर्शन की यह विश्व को अनोखी देन है, किन्तु आश्चर्य है कि अनेकान्तवाद का विश्वासी जैन समाज एकान्तवादों में उलझ गया है। वह विश्व की समस्या का समाधान कर सकता है, किन्तु उससे अपने घर की समस्या सुलझ नहीं पा रही है।
___ आज जैन समाज पयो और सम्प्रदायो में वट गया है। एक सम्प्रदाय में भी अनेको उपसम्प्रदाय है। जरा भीतर घुसकर देखने की चेप्टा करें, यदि मैं अमत्य न होउँ, तो वहाँ भी हर व्यक्ति का अपना एक पथ है । आज हम सघवाद से हटकर पथवाद और व्यक्तिवाद में विश्वास करने लगे है। यह बताता है कि अनेकान्तवाद की मने उपासना की है, वडे स्वरो मे उमका जयघोप भी किया है, उसके लिए बडे अन्य भी हमने लिखे है, किन्तु हमने उसे जीवन में स्थान नहीं दिया है। वह भापणो और पुस्तको मे ही जीवित है । जीवन के प्लेटफार्म पर हमने कभी उसका स्वागत नही किया । अन्यथा आज हम टुकड़ो मे दिखाई नही पडते। जब हम विश्व की समस्याओ का समाधान कर सकते है, तव छोटे-छोटे प्रश्नो का समाधान नहीं हो पा रहा है।
१ पडिपुण्ण जोवण्ण-गुणो, नह लज्जइ बालभाव-चरियेण । कुणइ य गुण-पणिहाणं, अणागयवय-सुहो वहाणत्यं ॥
--सरमतितर्क १-४३
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