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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ पदार्थ-विज्ञान हो, या आत्म-विज्ञान, धर्म-विज्ञान हो या जीव-विज्ञान, सभी क्षेत्रो मे जैन-दर्शन ने साधक को आग्रहवादी होने से बचाया है । जब पदार्थ-विज्ञान का सवाल आया, तो कुछ चिन्तको ने बताया कि अमुक पदार्थ का एक गुण धर्म निश्चित है । जैसे उसने पृथ्वी के स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुए कहाउसमे गध का ही गुण है। पानी का गुण केवल स्निग्धता है । और हवा मे केवल स्पर्श का तत्व है।' तव अनेकान्तवाद ने धीरे से समझाया, आप जरा गलती पर है। पृथ्वी मे गध तो है ही, साथ ही उसमे स्पर्श, रस और वर्ण भी है। इसी प्रकार जल, वायु और वनस्पति तत्व भी पाच भौतिक गुणो से व्याप्त हैं। क्योकि ये परमाणु के गुण है और हर परमाणु मे एक वर्ण, एक गध, एक रस और दो अविरोधी स्पर्श अवश्यभावी है । पदार्थ-विज्ञान पर जैन दर्शन ने गहरा चिन्तन दिया है। उसने कहा है-परमाणुओ मे भी परिवर्तन का नर्तन चालू है। परमाणु अपने ममान गुण-धर्म वाले परमाणुगो को अपनी ओर आकर्षित करता है । इसीलिए वे मिलते और विछुडते है। इसी प्रकार आत्मविज्ञान मे भी अनेकान्तवाद ने मानव को अनाग्रही बनाया है। नित्यत्व और अनित्यत्व के प्रश्न पर जहां कितने ही दर्शन एकान्त के सिरे पर पहुंचकर दुराग्रही बन गए, वहां जैन दर्शन ने चिन्तन की एक नई-दिशा देते हुए कहा-विश्व का हर पदार्थ एक और अनेक रूप में है। उममे एक ओर नित्यत्व के दर्शन होते है, तो दूसरी ओर वही पदार्थ हमे प्रतिक्षण, प्रतिपल परिवर्तित हुआ दृष्टिगोचर होता है। वस्तु के ध्रवत्व की ओर हमारा दृष्टि-बिन्दु टिकेगा तो हम उसके शाश्वत सौन्दर्य का दर्शन करते है, किन्तु जब हम उसके स्तर रूपो की ओर दृष्टिपात करते है, तो हमे वस्तु प्रतिक्षण विनाशी दृष्टिगोचर होगी। आचार्य हेमचन्द्र भी द्रव्य और पर्याय का विभेद करते हुए कहते है ___ जब वस्तु के भेद-प्रभेदो पर हमारी दृष्टि जाती है, तो वस्तु का खण्ड रूप हमारे सामने आता है। किन्तु जब भेद-प्रभेद रहित मूल स्वरूप पर हमारी दृष्टि जाती है, तब उसका अखण्ड रूप हमारे सामने आता है । इसी अर्थ मे हम आत्मा के दर्शन करना चाहंगे और उसके भेद प्रभेद रहित रूप को चिन्तन पथ मे लाते हैं, तो हमे अनन्त अनन्त आत्माओ के बीच एक आत्म-तत्त्व के दर्शन होते है । इस तत्त्व दर्शन को हम "एगे आया" या आत्मा द्वैतवाद के रूप मे पहचानते है और जब हमारी दृष्टि भेदानुगामिनी होती है, तब हम आत्मा के नर, नारक, देव और तिर्यञ्च रूप अथवा सुखी-दुखी आदि अवस्था भेदो के दर्शन करते है। दार्शनिक शब्दावली मे भेद-गामिनी दृष्टि पर्यायारिनक दृष्टि कही जाती है और अभेद-गामिनी दृष्टि द्रव्यास्तिक दृष्टि कही जाती है । 'गंधवती पृथ्वी-सिद्धान्त मुक्तावली २ रसवत्य मापः ३ स्पर्शवन् वायु:-सिद्धान्त मुक्तावली ' अपर्यय वस्तु समस्यमान अद्रव्य मेतच्च विविच्यमानम् । (अन्ययोग व्यवच्छेदिका-२२ वीं कारिका) २३४
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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