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जीवन में अनेकान्त
श्री मनोहरमुनिजी शास्त्री साहित्यरत्न +++++++++++++++++-+-+-+-+-+-+-+-+-+-+-+-+-+-+-+
अनेकान्त-वाद जैन दर्शन की मौलिक देन है । प्रत्येक वस्तु अपने आप मे अनेकान्त है। उसका एक गुण और एक स्वरूप नही है । उसके अनन्त गुण-धर्मों को स्वीकार करके ही हम उसके सही रूप को जान सकते है। किन्तु जब हम किसी आग्रह के वशीभूत होकर उसके दूसरे गुण धर्मों को स्वीकार करने के लिए इन्कार कर देते है, तभी हम मत्य से दूर हटकर अधकार में भटक जाते है । परिणाम मे, हम सिक्के की एक ही बाजू देख सकते है। दूसरी बाजू हमसे अछूती रह जाती है। यह एक प्रकार का कानापन है । दर्शन जगत् की भाषा मे इसे एकान्तवाद कहा जाता है और यही संघर्ष की जड है। जब कोई कह उठता है, सिक्के की यही बाजू सही है, दूसरी गलत, तब हम ममझ लेते हैं, इसका नाजुक मन अक्ल का बोझ उठाने में असमर्थ है। यह कैसे सभव है, कि सिक्के की एक वाजू देखकर उसे सही मान लिया जाए । आपके दिमाग में भले ही सही हो, पर बाजार मे वह चल नही सकता।
जैन-दर्शन यही कहता है, चिन्तन के क्षेत्र मे तुम एक सीमा तक पहुंच जाते हो, वहां पहुंच कर जब तुम यह कह उठते हो, कि मैंने सत्य का सर्वांगीण दर्शन कर लिया है तो तुम एक बहुत बड़ी गलती कर जाते हो। यह तो ऐसा हुआ कि हिमालय के एक शिखर पर पहुंच कर कोई यह कह बैठे, मैंने हिमालय के विराट रूप का सर्वाङ्गीण साक्षात्कार कर लिया है। यह पूर्ण नही, अर्घ सत्य है। तुम यह कह सकते हो, मैने सत्य के एक गिखर का दर्शन किया है, पर दूसरे भी शिखर है, वे इससे भी विराट है और इससे भी महान है। इस विनम्रता की वाणी मे जब तुम बात करते हो, तो समझा जा सकता है, तुमने सत्य की एक किरण पायी है और वह झूठी नही है। क्योकि उसमे आग्रह की बू नहीं हैं, जो कि सत्य के शिव रूप को अशिव बनाती है।