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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति ग्रन्थ
आधुनिक विज्ञान न तो विश्व ( Cniverse ) को केवल पृथ्वी तक ही सीमित मानता है, और न जीवन को ही । पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य आकाशीय पिलो पर भी जीव के अस्तित्व की सभावना की जा रही है और भावी अन्तरिक्ष यात्राएं सम्भवत इसके स्पष्ट प्रमाण उपस्थित कर मकेगी, ऐमी आगा की जाती है । पृथ्वी पर भी जीवन कब अस्तित्व मे आया, यह अब तक निश्चय नही हो पाया । भूत के गुणात्मक परिवर्तन से जीव की उत्पत्ति क्यों और कैसे होती है। इसका कोई उत्तर वैज्ञानिक आधारो पर नही दिया जा सकता । अत यदि यह मान भी लिया जाए, कि पृथ्वी पर "जीवन" का प्रारम्भ पृथ्वी की उत्पत्ति के बहुत समय बाद हुआ तो भी "भृत" के गुणात्मक परिवर्तन से ही "चेतन" की उत्पत्ति हुई, ऐमा किसी भी वैज्ञानिक आधार पर नही कहा जा सकता । यह तो केवल आनुमानिक कल्पना ही है ।
सामान्य अनुभव के आधार पर भी उक्त मान्यता की अमिद्धि सरलतया हो सकती है। सामान्य अनुभव हमे यह बतलाता है, कि "जीव" और "भूत" इन दोनो तत्वो मे गुणो की मौलिक भिन्नता है । आत्मा के चैतन्य गुण का भूत मे सर्वथा अभाव है । जिस पदार्थ मे जिम गुण का सर्वथा अभाव हो, वह गुण किसी भी प्रकार से परिवर्तन द्वारा प्रकट नही हो मकता । तर्क शास्त्र में उपादान की यह मर्यादा सर्वमान्य है । अत गुणात्मक परिवर्तन का उक्त प्रकार का सिद्धान्त ही गलत हो जाता है । इसके अतिरिक्त यह भी हम अनुभव करते है, कि जब आज भी जीवन की उत्पत्ति भूत पदार्थ से होनी शक्य नही है, तो अतीत में ऐसा हुआ है, यह कैसे माना जा मकता है ।
अव यदि जैन दर्शन के आलोक मे उक्त मान्यता का अवलोकन किया जाए, तो सहमा इसकी निरर्थकता स्पष्ट हो जाती है। जैन दर्शन बतलाता है, कि आत्मा और पुद्गल, ये दोनो तत्व सदा मे इम विश्व मे थे और सदा रहेंगे। दोनो के अस्तित्व को अनादिकालीन माने विना "विश्व - आयु" सम्बन्धित अनेक प्रश्नो का समाधान नही मिल सकता । अव यदि विकास - वादियो द्वारा कथित पृथ्वी की जीवनविकाम की कहानी को सत्य माना भी जाए, तो भी यह मानना जरूरी नही है, कि "भूत" ही स्वय परिवर्तित होकर चेतन का रूप धारण कर विकमित हो रहा है। जैन दर्शन के काल चक्र का मिद्धात यह तो निरुपण करता ही है, कि विकाम और ह्रास का क्रम विश्व के कुछ क्षेत्रो मे चलता रहता है। 'पृथ्वी' के आदिकाल में पौद्गलिक परिस्थितियो की प्रतिकूलता के कारण जीवो के उत्पन्न होने के योग्य योनियो के अभाव मे यहाँ जीवन का अभाव हो, यह सम्भव है। बाद मे जैसे-जैसे जीवनानुकूल स्थिति बनी और जीवो के उत्पादन होने के योग्य योनियो का प्रादुर्भाव हुआ, तो जीव उसमें आकर जन्म लेने लगे । ऐसे ही सम्भवत जीवन विकास का क्रम बना हो। इस प्रकार भूत के गुणात्मक परिर्वतन से चेतन की उत्पत्ति को मानने के बजाए जीव और भूत को पृथक्-पृथक् सत्ता के रूप मे स्वीकार करना तर्क मगत है ।
इम चर्चा के निष्कर्ष रूप मे कहा जा मकता है, कि भौतिकवाद, चाहे वह प्राचीन रूप में हो, या नवीन रूप मे विश्व क्या है ? का जो उत्तर प्रस्तुत करता है, वह न्याय संगत नही है । केवल भूत को चरम वास्तविक मान लेने से "विश्व क्या है" ? की पहेलिका सुलझ नही सकती ॥२
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१ दर्शनशास्त्र की रूपरेखा ५-७८
: विस्तृत चर्चा के लिए देखें लेखक द्वारा लिखित "विश्व-पहेलिका "
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