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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्य
जीव और चैतन्य को हम अभौतिक मान लेते है, तो उस नियम का उल्लघन होता है । विज्ञान ने सिद्ध किया है, कि शरीर भौतिक तत्त्वो से बना है, इसलिए भौतिक है। जीवन और चैतन्य का अधिष्ठान वही है। हम देखते है, कि भौतिक पदार्थों (जैसे अन्न, जल, गर्मी) आदि से जीवन शक्ति बढती है । अब यदि जीवन शक्ति, भौतिक शक्ति से भिन्न है, तो इसका मतलब होगा, कि बढी हुई जीवन शक्ति के रूप मे नई शक्ति की उत्पत्ति हुई है। क्योकि उसे अभौतिक होने से भौतिक शक्ति (अन्न, जल, आदि से प्राप्त शक्ति) का रूपान्तर नहीं कहा जा सकता । हम यह भी देखते है, कि मानसिक इच्छाओ के कारण शरीर के अङ्गो का सचालन होता है । यहाँ भी मन या चैतन्य अभौतिक मानने का मतलब होगा, कि शारीरिक क्रियाओ के रूप मे व्यक्त भौतिक शक्ति मन की इच्छामो मे अभौतिक शक्ति से उत्पन्न नई शक्ति है। क्यो कि भौतिक होने के कारण उसे अभौतिक शक्ति का रूपान्तर नहीं माना जा सकता। इस प्रकार जीव और चैतन्य को अभौतिक मानने का निष्कर्प नई शक्ति की उत्पत्ति होती है। किन्तु ऐसा होने से विश्व की कुल शक्ति मे वृद्धि हो जाएगी, जो कि उपर्युक्त नियम के विरुद्ध है । अब, चूंकि वह नियम सत्य है, उसका विरोधी निष्कर्प सत्य नही हो सकता । अतः जीव और चैतन्य को अभौतिक नही माना जा सकता।"' भौतिकवादियो के इस तर्क का निराकरण जैन दर्शन के आधार पर सहजतया हो सकता है। जैन-दर्शन के जिन तथ्यो का विवेचन हम कर चुके है, उनमे से इन तथ्यो को ध्यान मे रखना होगा।
१ पचास्तिकाय रूप विश्व का प्रत्येक अस्तिकाय "अस्तित्व" की दृष्टि से एक दूसरे से स्वतन्त्र है । अत जीव और पुद्गल का अस्तित्व भी परस्पर स्वतन्त्र है।
२ सत् (वास्तविकता, की परिभाषा' मे ही प्रत्येक अस्तिकाय की "अनश्वरता" (Conservation) का नियम निहित है। पदार्थत्व की अपेक्षा से सत् उत्पन्न और नष्ट होता रहता है, फिर भी द्रव्यत्व को अपेक्षा से तो सदा ध्र व ही रहता है । इसका तात्पर्य यह हुआ, कि पर्याय (अवस्था) के सतत प्रवाह मे प्रतिसमय परिवर्तन पाता हुआ भी पुद्गल द्रव्य सदा ही पुद्गल रहता है और जीव सदा जीव रहता है । न पुद्गल कभी जीव के रूप मे परिणत होता है और न जीव कभी पुद्गल के रूप में।
३ पुद्गल-द्रव्य मे सभी पदार्थों का और भौतिक शक्तियो का समावेश हो जाता है । अत पुद्गल द्रव्य की अनश्वरता के नियम मे भौतिक पदार्थों और भौतिक शक्तियो के परस्पर रूपान्तरण का निषेध नही है। अब पदार्थ और शक्ति की सुरक्षा का नियम वैज्ञानिक जगत् मे सयुक्तरूप धारणा कर चुका है । इसके अनुसार विश्व के सभी प्रकार के भौतिक पदार्थ और भौतिक शक्ति की तुलाराशि सदा अचल रहती है। यह नियम केवल भूत तत्व पर ही लागू होता है। जैन-दर्शन आत्मा को पुद्गल से भिन्न मानता है। अत जैन-दर्शन मे आत्मा की अनश्वरता और पुद्गल की अनश्वरता के दो नियम बन गए है। प्रथम नियम के अनुसार पुद्गल तत्व, चाहे वह भौतिक पदार्थ के रूप मे हो या भौतिक शक्ति के रूप मे हो, द्रव्य की अपेक्षा से अक्षय और ध्रुव रहता है। दूसरे नियम के अनुसार जीव-तत्व द्रव्य की अपेक्षा से शाश्वत और अचल रहता है। १ दर्शन-शास्त्र की रूप-रेखा ५०७४
उत्पादव्ययधोव्ययुक्त सत्
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