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भौतिकवाद और जैन-दर्शन
मुनि श्री महेन्द्रकुमारजी बी० एस० सी०
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पश्चिमी दर्शन जगत् मे भौतिकवाद, यूनानी विचारक थेलिस (Thalis) (ई० पू० ६२४-ई० पू० ५५०) से प्रारम्भ होकर आधुनिक युग मे कार्ल मार्क्स की विचारधारा तक विविध रूप में दिखाई देता है । यहाँ पर हम इसके ऐतिहासिक विवेचन और सूक्ष्म भेदोपभेद में न जाकर केवल इसके स्थूल स्प की ही समीक्षा करेंगे। जैन-दर्शन और भौतिकवाद मे भौतिक पदार्थों की वस्तु-सापेक्ष सत्ता के विषय मे जो सादृश्य है, वह तो स्पष्ट ही है। भौतिकवाद के अनुसार भूत-तत्व की परिभाषा है-"जो कुछ हम अपनी इन्द्रियो से देखते-समझते (इन्द्रिय गोचर) है, जो कुछ इन्द्रिय गोचर वस्तुओ का मूल स्वरूप है, जो देश (लम्बाई, चौडाई, मोटाई) मे फैला हुआ है, जो कम या वेसी मात्रा मे दवाब की रोकथाम करता है, जिसमे इन्द्रियो से जानने लायक गति पाई जाती है, वह भूत है।" लेनिन के शब्दो मे "भूत" की दार्शनिक परिभाषा है-"भूत दार्शनिक परिमापा मे उस साकार वास्तविकता को कहते है, जिसका ज्ञान मनुष्य को उसकी इन्द्रियो द्वारा मिलता है । वह ऐसी वास्तविकता है, जिसकी नकल की जा सकती है, जिसका फोटो खिंचा जा सकता है, जो हमारी सवेदनाओ (विषय-इन्द्रिय मस्तिष्क-सपक) द्वारा (मस्तिष्क) मे प्रतिबिम्बित की जा सकती है, किन्तु उसकी सत्ता इन (सवेदनाओ) पर निर्भर नहीं है।' दूसरी ओर जैन-दर्शन मे पुद्गल की परिभाषा करते हुए कहा गया है-स्पर्श, रस, गध एव वर्ण-इन
१ दो मेटिरियलिज्म एण्ड एम्पिराओ-क्रिटिसिज्म पृ०१०२ २ वैज्ञानिक भौतिकवाद-राहुल साकृत्यायन पृ०१११ जन-सिद्धात दीपिका १-११
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