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________________ गुरदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ ही दूसरे सत्रस्त प्राणी भी दुख मे त्राम पाते हैं, गिडगिडाते हैं। जैसे तुम भयभीत हो रहे हो, ऐसे ही दूसरे प्राणी भी मरने से भय खाते हैं, धवराने हैं । मूक पशु, जो वैचारे अपना दुख प्रकट भी नहीं कर सकते, उनके खून से तुमने अपने हाथ रगे हैं। दूसरो को भय देकर, दूसरो की जिंदगी लूटकर, दूसरो को मौत के घाट उतारकर, तुम निर्भय हो सकते हो, राजन् । पैर मे काटा लग जाए, तो तुम्हे न दिन में चन न रात को नीद ही आती। तो फिर, जिसकी गर्दन पर छुरी चलती है, वाण की चोट लगती है, तो क्या उनको पीडा नहीं होती? क्या उनका जीवन, जीवन नहीं है ? क्या उनको अपने प्राण प्यारे नहीं हैं ? सबके अन्दर एक ही चेतना की धारा वह रही है । सब मुख तथा निर्भयता चाहते हैं । जो दूसरो को हसाएगा, वह हंसेगा, जो दूमगे को लाएगा, वह रोएगा, आमू बहाएगा। दूसरो को निर्भय करोगे, तो निर्भय बनोगे और दूसरो को भय दोगे तो, भय मिलेगा, जैमी ध्वनि, वैमी प्रतिव्यनि । हे पार्थिव ! तुम्हे अभय है, डरो नही, गिडगिडाओ नही । यदि मचमुच, तुम निर्भय रहना चाहते हो, तो दूसरी को तुम भी अभय देने वाले वनो, निर्भय बनाओ । इम अनित्य-नम्बर ससार में चार दिन की जिन्दगी पाकर क्यो हिंसा मे डूबे हो, क्या दूमरों के खून से हाथ रगते हो।' समत्वयोग से पाप-निवृत्ति जैन-सस्कृति के महान् तीर्थकरी ने ममत्व-योग पर बल देते हुए एक दिन तुमुल उद्घोप किया था, सब आत्माओं को अपनी आत्मा के ममान ममझो और जितने भी मसार के अन्य प्राणी है, उनमे अपने आपको देखो तथा ससार की सब आत्माओ को अपने अन्दर में देखो । २ यदि तुम विश्व की ममस्त आत्मामो में अपने-आपको समझोगे, अन्य आत्माओ के अन्दर भी आत्म-दर्शन करोगे, तो उम स्थिति मे, यदि तुम किसी को कप्ट दोगे, तो तुम्हे यही अनुभूति होगी कि, मैं अपनी आत्मा को कप्ट दे रहा हूँ। किनी को गाली दोगे, तो यही तुम महमूस करोगे कि मैं अपने आपको गाली दे रहा हूँ। क्योकि मारे विश्व की आत्माओं में मेरी आत्मा भी मान्ममात् है, तो किसी को कप्ट पहुंचाने अथवा गाली देने मे अपनी चोट अपने ऊपर हो तो पडेगी । मसार के प्राणियो को अपनी आत्मा के ममान मानकर यदि समूचे जगत् को तुमने एक विगट् रूप में स्वीकार कर लिया, तो तुम्हारा जीवन विकारवासनाओ से मुक्त होता चला जाएगा । कर्म के आवव का निरोध होता जाएगा, आत्म-दमन तथा इन्द्रिय मयम का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा, फिर मसार मे रहते हुए भी तुम्हे पाप-कर्म का बन्ध नहीं हो पाएगा। तुम्हारा जीवन निप्पाप हो जाएगा। 'अमनो पत्थिवा ! तुम्मं, अभयदाया भवाहि य। अणित्त्वे जीव-लोगम्मि, कि हिंसाए पसन्जसि ।। --उत्तराध्ययन सूत्र १८।११ २ सम्भूयप्पभूयस्स, सम्म भूयाई पासओ। ३ पिहिनासबस्स दतस्म पात्र-कम्मं न वह।" वकालिक-सूत्र, -दशवकालिक, He २२६
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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