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अहिंसा का मूल आधार समत्व-योग
श्रमण भगवान महावीर से एक जिज्ञासु साधक ने प्रश्न किया भते | आपके शिष्य, ये निर्ग्रन्थ भिक्षु हिंसा का त्याग क्यो करते है ? अहिंसा का पथ क्यो अपनाते है ? अनेक भयकर कप्ट और घोर यातनाएं सहन करते हुए भी, इस दुर्गम-विषम मार्ग पर क्यो चलते है ?
अहिंसा के उस परम देवता का सहज उत्तर था आयुष्मन् । ससार मे सब जीव जीना चाहते है । मरना कोई भी नहीं चाहता | सब अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते है, झूजते है, प्रयत्न करते है | मरना कोई चाहता ही नहीं। इसीलिए निर्ग्रन्थ, भिक्षु, घोर जीव हिंसा का परित्याग करते है ।' सब प्राणियो के जीवन की धारा एक है | सभी प्राणी दीर्घायु चाहते है, सुख पसन्द करते है और दुख से घबराते है । सबको मरण अप्रिय है, जीवन प्रिय है | सभी जीने की कामना करते हैं | ससार मे जीवन सब को प्यारा है। सब प्राणियों की आवाज एक है
जैन-सस्कृति के महान् आचार्यों का यह साम्य मूलक स्वर भारत के मैदानो मे गूंजता रहा है कि, जीवन का मोह और मृत्यु का भय, सब प्राणियो को एक समान है । सब जीव जीना चाहते है, मरना कोई नहीं चाहता ! "एक गन्दगी को कोडे और स्वर्ग के अधिपति इन्द्र के अन्तर मे जीवन की आकाक्षा समान है और मृत्यु का भय भी समान है। जिन्दगी का मैदान बराबर है | सब प्राणियो की आवाज एक है । तुम अपने अन्दर दृष्टि डालकर देखो, अपने अन्तर मे झाक कर देखो कि, तुम्हारी चाह क्या है ? तुम्हारी आत्मा सुख चाहती है, तो दूसरे की आत्मा सुख चाहती है । तुम्हे दुख प्यारा नही, तो तो ससार के अन्य जीवो को भी दुख प्यारा नही | जीवन को नापने का एक ही गज है । समत्वयोग का उद्गाता ऋषि
जैन-मस्कृति के अमर उद्गाता ऋषि गर्दभालि ने राजा सयति को इसी समत्वयोग का सन्देश देते हुए कहा था-राजन् जैसे तुम गिडगिडा रहे हो, पीपल के पत्ते की तरह थर-थर कॉप रहे हो, ऐसे
१ सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउ न मरिजिउ । तम्हा पाणिवह घोर, निग्गथा बज्जयंति ण ॥
-दशवकालिक-सूत्र ३ सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया, दुस-पडिकूला, अप्पिय-वहा, पिय-जीविणो, जीविउ-कामा, सन्धेसि जीविय पियं ।
-आचाराग-सूत्र, ११२, ९२-९३ 3 अमेध्य मध्ये कीटस्य, सुरेन्द्रस्य सुरालये। समाना जीविताकाक्षा, सम मृत्यु-भय दयो ॥
-आचार्य हेमचन्द्र जह मम न पिय दुक्ख, जाणिय एवमेव सव्व जीवाण
-जनाचार्य
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