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________________ गुम्देव श्री ग्न्न मुनि स्मृनि-ग्रन्य लिए मानव-जगत् को अहिंसा का अचूक प्रयोग बतलाया | मानव के अन्तर को झकझोग्ने हुए उन्होंने कहा - मानव | जब तक तू अपने-आप में वन्द म्हंगा, नो मुख गान्ति के तुझं कभी भी दर्शन नहीं हो सकते | कोरा अपने प्रति प्रेम जहर है, नेरा भी विनाश करेगा और दूमगे का भी विनाश कग्गा । यदि तेरा यह प्रेम जन-जन के मन-मन तक पहुंच जाए, यदि तू विराट् म्प धारण कर प्राणिमात्र को अपने प्रेम की डोरी मे लपेट ले, आत्ममात् करले तो नरा यह प्रेम अमृत वन जाएगा, स्व-पर के लिए मगल वरदान बन जाएगा | नेरे मन के अन्तगल की गहराइयो में मे करणा की अमृत-धार फूट निकलेगी । जब तू व्यष्टि से निकलकर ममप्टि के रूप में मुख दुम्ब की वात मोचने लगेगा, तो तेरे जीवन में हिमा का देवता जाग उठेगा | तेरा मन वचन-कर्म अहिंमा के मधुर मांच में ढल जाएगा और तू मच्चे अर्यों में मानव वन जाएगा ! तेरे परिवार, ममाज तथा राष्ट्र में सर्वत्र ममता का, मुग्व का, गान्ति का मुम्बद-मगल वातावरण बन जाएगा इधर-उधर कहीं भी दुख, भय, त्राम, गोपण, अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, हाहाकार का अभिशाप नजर नहीं आएगा। अहिंसा का मूल आधार · समत्व योग अहिंमा-तत्त्व का विश्लेपण मनोवैज्ञानिक दृष्टि में करने पर यह निश्चित स्प मे कहा जा सकता है कि, महिमा की भावना आतक-दगन तया समत्व-योग मे ही पैदा होती है | ममत्व-योग ही अहिंसा का मूल आधार है | जो व्यक्ति दुःख से नही, दुख के कारणों मे बचना चाहता है, वह आतकदर्गी है, अथवा दुमगे को दुख देने में जो अपना दुग्ब देखे, वह आतकदी है। आतक-दी ही ममदर्गी-ममत्व-योगी वन मकता है यह अनुभव की कमोटी पर परखा हुआ एक निश्चित-निश्चल एव स्थिर स्पष्ट तथ्य है । दुःख अपने को अप्रिय है, नो मवको अप्रिय है- इम मवेदना, अनुभूति और आत्मा के ममत्वयोग से ही अहिंसा उपजती है | इमीलिए तो जैन-मस्कृति के उन्नायको तया भाग्य विधाताओं ने एक दिन उद्घोपणा की थी -"अपने को मुग्व प्रिय है और दुम्ब अप्रिय है, तो दूमगे को भी सुख प्रिय है और दुम्ब अप्रिय है। हिंसा अपने लिए अनिप्ट है, तो दूमगे के लिए भी अनिष्ट हैयह मोचकर दूमगे की हिंसा नहीं करनी चाहिए।' समत्वयोग का मूलमत्र : जीयो और जीने दो अहिंमा की मूल-भावना प्राणि-मात्र को जीने का समान अधिकार प्रदान करती है। जिओ और जीने दो, यह ह्मिा का स्वणिम-मूत्र, जीवन के प्रति प्रत्येक प्राणी के अन्तर की आगा-आकामा का आदर स्वागत करता है और जीने के लिए प्राणि-मात्र के दावे को हृदय में स्वीकार करता है-यही तो प्रत्येक प्राणी के मन-मानम की महज, स्वाभाविक एव प्रवल आकाक्षा है । ' आत्मवत्सर्व भूतेषु, सुख-दुख प्रियाप्रिये । चिन्तयन्नात्मनोऽनिप्टा, हिमामन्यस्य नाचरेत् ।। -आचार्य हेमचन्द्र ૨૨૪
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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